गुरू
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।
~ कबीर
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
~ कबीर
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय।
जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय॥
~ कबीर
जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन।
अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन॥
~ कबीर
राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट।
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट॥
~ कबीर
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥
~ कबीर
देखा न कोहकन कोई फ़रहाद के बग़ैर
आता नहीं है फ़न कोई उस्ताद के बग़ैर
~ अज्ञात
रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 10
'परशुराम का शिष्य कर्ण, पर, जीवन-दान न माँगेगा,
बड़ी शान्ति के साथ चरण को पकड़ प्राण निज त्यागेगा।
प्रस्तुत हूँ, दें शाप, किन्तु अन्तिम सुख तो यह पाने दें,
इन्हीं पाद-पद्मों के ऊपर मुझको प्राण गँवाने दें।'
लिपट गया गुरु के चरणों से विकल कर्ण इतना कहकर,
दो कणिकाएँ गिरीं अश्रु की गुरु की आँखों से बह कर।
बोले- 'हाय, कर्ण तू ही प्रतिभट अर्जुन का नामी है?
निश्चल सखा धार्तराष्ट्रों का, विश्व-विजय का कामी है?
'अब समझा, किसलिए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था,
मेरे शब्द-शब्द को मन में क्यों सीपी-सा धरता था।
देखें अगणित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिखलाया,
पर तुझ-सा जिज्ञासु आज तक कभी नहीं मैंने पाया।
~ रामधारी सिंह "दिनकर"
शागिर्द हैं हम 'मीर' से उस्ताद के 'रासिख़'
उस्तादों का उस्ताद है उस्ताद हमारा
~ रासिख़ अज़ीमाबादी
दानाओं की बात न मानी काम आई नादानी ही
सुना हवा को पढ़ा नदी को मौसम को उस्ताद किया
~ निदा फ़ाज़ली
मैं वो हूँ जिस का ज़माने ने सबक़ याद किया
ग़म ने शागिर्द किया फिर मुझे उस्ताद किया
~ साक़िब लखनवी
कुछ तो मुश्किल में काम आते हैं
कुछ फ़क़त मुश्किलें बढ़ाते हैं
अपने एहसान जो जताते हैं
अपना ही मर्तबा घटाते हैं
सब्र से इंतजार करना सीख
अच्छे दिन आते आते आते हैं
फ़ासलों से गुरेज़ क्या करना
फ़ासले क़ुर्बतें बढ़ाते हैं
कुछ तो बार-ए-नज़र भी होते हैं
सारे मंज़र कहाँ लुभाते हैं
वो जो रहते हैं बे-हवास अक्सर
हादसों को वही बुलाते हैं
कोई उस्ताद क्या सिखाएगा
जो सबक़ सानेहे सिखाते हैं
जब वो मिलने से कुछ गुरेज़ करे
वाहिमे दिल में कसमसाते हैं
सारी यादें तो ख़ुश-गवार नहीं
तल्ख़ लम्हे भी याद आते हैं
दिल में होता है वज्द का 'आलम
तान वो दिल से जब लगाते हैं
याद इक हीर की सताती है
बाँसुरी जब कभी बजाते हैं
नग़्मे गाते थे जो मसर्रत के
आज कल मरसिए सुनाते हैं
बात की बात ही इसे कहिए
क़हक़हे दर्द-ओ-ग़म मिटाते हैं
कम ही अब रह गए हैं जो 'राशिद'
दर्द की महफ़िलें सजाते हैं
~ मुमताज़ राशिद
सब गुरुजन को बुरो बतावै।
अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।
भीतर तत्व न, झूठी तेजी ।
क्यों सखि सज्जन? नहिं अँगरेजी । (यह एक कटाक्ष था अंग्रेज़ो पर)
~ भारतेंदु हरिश्चंद्र
मैं अखिल विश्व का गुरू महान,
देता विद्या का अमर दान,
मैंने दिखलाया मुक्ति मार्ग
मैंने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर,
मेरे वेदों की ज्योति प्रखर
मानव के मन का अंधकार
क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर नभ में घहर-घहर,
सागर के जल में छहर-छहर
इस कोने से उस कोने तक
कर सकता जगती सौरभ भय।
~ अटल बिहारी वाजपेयी