चाँद  

ईद का चाँद तुम ने देख लिया 

चाँद की ईद हो गई होगी 

~ इदरीस आज़ाद


उस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगा 

आसमाँ पे चाँद पूरा था मगर आधा लगा 

~ इफ़्तिख़ार नसीम


पूछा जो उनसे चाँद निकलता है किस तरह 

ज़ुल्फ़ों को रुख़ पे डाल के झटका दिया कि यूँ

~ आरज़ू लखनवी


कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा।

कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तेरा।

हम भी वहीं मौजूद थे, हम से भी सब पूछा किए,

हम हँस दिए, हम चुप रहे, मंजूर था पर्दा तेरा।

~ इब्ने इंशा 


मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो

मेरी तरह तुम भी झूठे हो


इक टहनी पर चाँद टिका था

मैं ये समझा तुम बैठे हो


उजले-उजले फूल खिले थे

बिल्कुल जैसे तुम हँसते हो


मुझको शाम बता देती है

तुम कैसे कपड़े पहने हो


तुम तन्हा दुनिया से लड़ोगे

बच्चों सी बातें करते हो

~ बशीर बद्र


आप की याद आती रही रात भर 

चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रात भर 


रात भर दर्द की शम्अ जलती रही 

ग़म की लौ थरथराती रही रात भर 


बांसुरी की सुरीली सुहानी सदा 

याद बन बन के आती रही रात भर 


याद के चाँद दिल में उतरते रहे 

चाँदनी जगमगाती रही रात भर 


कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा 

कोई आवाज़ आती रही रात भर

~ मख़दूम मुहिउद्दीन [फिल्म: गमन (1978)]


“आप की याद आती रही रात भर”

चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर


इसी ग़ज़ल का आखरी शेर है… 

एक उम्मीद से दिल बहलता रहा 

इक तमन्ना सताती रही रात भर

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है

बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है


उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से

तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिये बनाया है


महक रही है ज़मीं चांदनी के फूलों से

ख़ुदा किसी की मुहब्बत पे मुस्कुराया है


उसे किसी की मुहब्बत का ऐतबार नहीं

उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है


तमाम उम्र मेरा दम उसके धुएँ से घुटा

वो इक चराग़ था मैंने उसे बुझाया है

~ बशीर बद्र


चाँद मद्धम है आसमाँ चुप है 

नींद की गोद में जहाँ चुप है 


दूर वादी में दूधिया बादल 

झुक के पर्बत को प्यार करते हैं 


दिल में नाकाम हसरतें ले कर 

हम तिरा इंतिज़ार करते हैं

~ साहिर लुधियानवी


चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।

पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,

मानों झीम (झपकी लेना) रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥

~ मैथिलीशरण गुप्त


चाँद ने मार रजत का तीर

निशा का अंचल डाला चीर,

जाग रे, कर मदिराधर पान,

भोर के दुख से हो न अधीर!

इंदु की यह अमंद मुसकान

रहेगी इसी तरह अम्लान,

हमारा हृदय धूलि पर, प्राण,

एक दिन हँस देगी अनजान!

~ सुमित्रानंदन पंत


चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। 


दिवस में सबके लिए बस एक जग है, 

रात में हर एक की दुनिया अलग है, 

कल्पना करने लगी अब राह मन में; 

चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। 


भूमि का उर तप्त करता चंद्र शीतल, 

व्योम की छाती जुड़ाती रश्मि कोमल, 

कितुं भरतीं भावनाएँ दाह मन में; 

चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। 


कुछ अँधेरा, कुछ उजाला, क्या समा है, 

कुछ करो, इस चाँदनी में सब क्षमा है, 

किंतु बैठा मैं सँजोए आह मन में; 

चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। 


चाँद निखरा, चंद्रिका निखरी हुई है, 

भूमि से आकाश तक बिखरी हुई है, 

काश मैं भी यों बिखर सकता भुवन में; 

चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।

~ हरिवंशराय बच्चन


चाँद का हुस्न भी ज़मीन से है 

चाँद पर चाँदनी नहीं होती 

~ इब्न-ए-सफ़ी


हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,

‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।


सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,

ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।


आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,

न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’


बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!

कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।


जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,

एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।


कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,

बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।


घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,

नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।


अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,

सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’

~ रामधारी सिंह "दिनकर" (चांद का कुर्ता ) साभार: नंदन, दिसंबर, 10, 1996


चोट कड़ी है काल प्रबल की,

उसकी मुस्कानों से हल्की,

राजमहल कितने सपनों का पल में नित्य ढहा करता है !

मुझ से चाँद कहा करता है —


तू तो है लघु मानव केवल,

पृथ्वी-तल का वासी निर्बल,

तारों का असमर्थ अश्रु भी नभ से नित्य बहा करता है !

मुझ से चाँद कहा करता है —


तू अपने दुख में चिल्लाता,

आँखो देखी बात बताता,

तेरे दुख से कहीं कठिन दुख यह जग मौन सहा करता है !

मुझ से चाँद कहा करता है —

~ हरिवंशराय बच्चन


इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ

इक बगल में नींद होगी, इक बगल में लोरियाँ

हम चाँद पे, हम चाँद पे,

रोटी की चादर डाल कर सो जाएँगे

और नींद से, और नींद से कह देंगे

लोरी कल सुनाने आएँगे

~ पीयूष मिश्रा


आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ

आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा

आज फिर सीने में उलझी हुई वज़नी साँसें

फट के बस टूट ही जाएँगी, बिखर जाएँगी

आज फिर जागते गुज़रेगी तेरे ख्वाब में रात

आज फिर चाँद की पेशानी से उठता धुआँ

~ गुलज़ार


बेसबब मुस्कुरा रहा है चाँद 

कोई साज़िश छुपा रहा है चाँद 


जाने किस की गली से निकला है 

झेंपा झेंपा सा आ रहा है चाँद 


कितना ग़ाज़ा लगाया है मुँह पर 

धूल ही धूल उड़ा रहा है चाँद 


कैसा बैठा है छुप के पत्तों में 

बाग़बाँ को सता रहा है चाँद 


सीधा-सादा उफ़ुक़ से निकला था 

सर पे अब चढ़ता जा रहा है चाँद 


छू के देखा तो गर्म था माथा 

धूप में खेलता रहा है चाँद

~  गुलज़ार


मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे

आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने

रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे

एक और 

सारा दिन बैठा, मैं हाथ में लेकर खा़ली कासा (भिक्षापात्र)

रात जो गुज़री, चांद की कौड़ी डाल गई उसमें

सूदखोर सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा।

~  गुलज़ार