बारिश 

ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो 

भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी 

मगर मुझ को लौटा दो बचपन का सावन 

वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी

~ सुदर्शन फ़ाकिर


आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यों है

ज़ख़्म हर सर पे हर एक हाथ में पत्थर क्यों है

जब हक़ीक़त है के हर जर्रे में तू रहता है

फिर ज़मीं पे कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यों है

~ सुदर्शन फ़ाकिर


हम को अब तक अपने बचपन का ज़माना याद है 

दोस्तों के साथ बारिश में नहाना याद है 


याद है वो झूमना वो नाचना वो कूदना 

वो लपकना और वो पानी उड़ाना याद है 


बे-तहाशा भीगना बे-फ़िक्र हो कर खेलना 

और फिर सर्दी के मारे कपकपाना याद है 


भीग कर बीमार पड़ना और बिस्तर में पड़े 

चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है 

भागना रंगों के पीछे घास के मैदान में 

तितलियों के शौक़ में वो मार खाना याद है 


धूप की मानिंद है ये ज़िंदगी 'तारिक़' मुझे 

धूप के दालान में वो आना जाना याद है

~ अताउर्रहमान तारिक़

 

बारिश बारिश बारिश होगी 

गंदे पानी में मत जाना 

ख़ारिश होगी 


फोड़े फुंसियाँ फूटेंगे तो खुजलाओगे 

रोते-धोते टें टें करते घर आओगे 

ऊपर से फिर कड़वे तेल की मालिश होगी 

बारिश बारिश बारिश होगी 


बारिश आती है तो नाले भर देती है 

खेलने के मैदान में कीचड़ कर देती है 


इस बार कचहरी में इस बात की नालिश होगी 

बारिश बारिश बारिश होगी 


पेड़ों को नोकीली बूँदें चुभती हैं क्या 

तेज़ हवा से उन की टहनियाँ दुखती हैं क्या 

पेड़ों को भी तो छतरी की ख़्वाहिश होगी 

बारिश बारिश होगी

~ गुलज़ार


बारिश होती है तो पानी को भी लग जाते हैं पाँव 

दर-ओ-दीवार से टकरा के गुज़रता है गली से 

और उछलता है छपाकों में 

किसी मैच में जीते हुए लड़कों की तरह 

जीत कर आते हैं जब मैच गली के लड़के 

जूते पहने हुए कैनवस के उछलते हुए गेंदों की तरह 

दर-ओ-दीवार से टकरा के गुज़रते हैं 

वो पानी के छपाकों की तरह

~ गुलज़ार (पुस्तक : “चाँद पुखराज का”)


मैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ 

पहली बारिश ही आख़िरी है मुझे

~ तहज़ीब हाफ़ी



क्यूँ माँग रहे हो किसी बारिश की दुआएँ 

तुम अपने शिकस्ता दर-ओ-दीवार तो देखो

~ जाज़िब क़ुरैशी


'कैफ़' परदेस में मत याद करो अपना मकाँ 

अब के बारिश ने उसे तोड़ गिराया होगा

~ कैफ़ भोपाली


बरसात का मज़ा तिरे गेसू दिखा गए 

अक्स आसमान पर जो पड़ा अब्र छा गए

~ लाला माधव राम जौहर


दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं 

ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं


नर्म अल्फ़ाज़ भली बातें मोहज़्ज़ब लहजे 

पहली बारिश ही में ये रंग उतर जाते हैं

~ जावेद अख़्तर (पुस्तक : तरकश)


बारिश दिन ढले की

हरियाली-भीगी, बेबस, गुमसुम

तुम हो


और,

और वही बलखाई मुद्रा

कोमल शंखवाले गले की

वही झुकी-मुँदी पलक सीपी में खाता हुआ पछाड़

बेज़बान समन्दर


अन्दर

एक टूटा जलयान

थकी लहरों से पूछता है पता

दूर- पीछे छूटे प्रवालद्वीप का


बांधूंगा नहीं

सिर्फ़ काँपती उंगलियों से छू लूँ तुम्हें

जाने कौन लहरें ले आई हैं

जाने कौन लहरें वापिस बहा ले जाएंगी


मेरी इस रेतीली वेला पर

एक और छाप छूट जाएगी

आने की, रुकने की, चलने की


इस उदास बारिश की

पास-पास चुप बैठे

गुपचुप दिन ढलने की!

~ धर्मवीर भारती


अपने घर की खिड़की से मैं आसमान को देखूँगा 

जिस पर तेरा नाम लिखा है उस तारे को ढूँडूँगा


जिस तन्हा से पेड़ के नीचे हम बारिश में भीगे थे 

तुम भी उस को छू के गुज़रना मैं भी उस से लिपटूँगा

~ अमजद इस्लाम अमजद

 

चेहरे पे मिरे ज़ुल्फ़ को फैलाओ किसी दिन 

क्या रोज़ गरजते हो बरस जाओ किसी दिन 


राज़ों की तरह उतरो मिरे दिल में किसी शब 

दस्तक पे मिरे हाथ की खुल जाओ किसी दिन 


पेड़ों की तरह हुस्न की बारिश में नहा लूँ 

बादल की तरह झूम के घर आओ किसी दिन 


ख़ुशबू की तरह गुज़रो मिरी दिल की गली से 

फूलों की तरह मुझ पे बिखर जाओ किसी दिन 


गुज़रें जो मेरे घर से तो रुक जाएँ सितारे 

इस तरह मिरी रात को चमकाओ किसी दिन 


मैं अपनी हर इक साँस उसी रात को दे दूँ 

सर रख के मिरे सीने पे सो जाओ किसी दिन

~ अमजद इस्लाम अमजद


लबों पर तबस्सुम तो आँखों में आँसू ,थी धूप एक पल में तो इक पल में बारिश 

हमें याद है बातों बातों में उन का हँसाना रुलाना रुलाना हँसाना

~ अकबर हैदराबादी


दफ़्तर से मिल नहीं रही छुट्टी वगर्ना मैं 

बारिश की एक बूँद न बेकार जाने दूँ

~ अज़हर फ़राग़


प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर 

मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े

~ इक़बाल साजिद


इतना तो हुआ फ़ाएदा बारिश की कमी का 

इस शहर में अब कोई फिसल कर नहीं गिरता

~ क़तील शिफ़ाई


चाहत में क्या दुनियादारी इश्क़ में कैसी मजबूरी 

लोगों का क्या समझाने दो उन की अपनी मजबूरी


रोक सको तो पहली बारिश की बूंदों को तुम रोको 

कच्ची मिट्टी तो महकेगी है मिट्टी की मजबूरी

~ मोहसिन भोपाली


बारिश का लुत्फ़ बंद मकानों में कुछ नहीं 

बाहर निकलते घर से तो सैलाब देखते

~ शहरयार


दो अश्क जाने किस लिए पलकों पे आ कर टिक गए 

अल्ताफ़ की बारिश तिरी, इकराम का दरिया तिरा

~ इब्न-ए-इंशा (कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा)


आज गगन की सूनी छाती

भावों से भर आई,

चपला के पावों की आहट

आज पवन ने पाई,

डोल रहें हैं बोल न जिनके

मुख में विधि ने डाले

बादल घिर आए, गीत की बेला आई।


बिजली की अलकों ने अंबर

के कंधों को घेरा,

मन बरबस यह पूछ उठा है

कौन, कहाँ पर मेरा?

आज धरणि के आँसू सावन

के मोती बन बहुरे,

घन छाए, मन के मीत की बेला आई।

बादल घिर आए, गीत की बेला आई।

~ हरिवंशराय बच्चन


अम्मा, ज़रा देख तो ऊपर

चले आ रहे हैं बादल ।

गरज़ रहे हैं, बरस रहे हैं,

दीख रहा है जल ही जल ।


हवा चल रही क्या पुरवाई,

झूम रही डाली - डाली ।

ऊपर काली घटा घिरी है,

नीचे फैली हरियाली ।


भीग रहे हैं खेत, बाग़, वन,

भीग रहे हैं घर-आँगन ।

बाहर निकलूँ, मैं भी भीगूँ,

चाह रहा है मेरा मन ।

~ रामधारी सिंह "दिनकर”


घनन-घनन घिर घिर आये बदरा

घन घन घोर कारे छाये बदरा

धमक-धमक गूँजे बदरा के डंके

चमक-चमक देखो बिजुरिय चमके

मन धड़काये बदरवा

मन धड़काये बदरवा
मन मन धड़काये बदरवा

काले मेघा काले मेघा पानी तो बरसाओ

बिजुरी की तलवार नहीं बूँदों के बान चलाओ

मेघा छाये बरखा लाये

घिर-घिर आये घिर के आये

कहे ये मन मचल-मचल

न यूँ चल सम्भल-सम्भल

गये दिन बदल 

तू घर से निकल

बरसने वाला है अमरत जल

दुविधा के दिन बीत गये 

भैया मल्हार सुनाओ

काले मेघा काले मेघा 

पानी तो बरसाओ

घनन घनन घिर घिर आये बदरा

रस अगर बरसेगा कौन फिर तरसेगा

कोयलिया गायेगी बैठेगी मुण्डेरों पर

जो पंछी गायेंगे नये दिन आयेंगे

उजाले मुस्कुरा देंगे अंधेरों पर

प्रेम की बरखा में भीगे-भीगे तनमन

धरती पे देखेंगे पानी का दरपन

जईओ तुम जहाँ-जहां देखिओ वहाँ-वहाँ

यही इक समाँ कि धरती यहाँ

है पहने सात रंगों की चूनरिया

घनन घनन घिर घिर आये बदरा

पेड़ों पर झूले डालो और ऊँची पेंग बढ़ाओ

काले मेघा काले मेघा पानी तो बरसाओ

आई है रुत मतवाली बिछाने हरियाली

ये अप्ने संग में लाई है सावन को

ये बिजुरी की पायल ये बादल का आँचल

सजाने लाई है धरती की दुल्हन को

डाली-डाली पहनेगी फूलों के कंगन

सुख अब बरसेगा आँगन-आँगन

खिलेगी अब कली-कली हँसेगी अब गली-गली

हवा जो चली तो रुत लगी भली

जला दे जो तन-मन वो धूप ढली

काले मेघा काले मेघा पानी तो बरसाओ
घनन घनन घिर घिर आये बदरा 

~ जावेद अख़्तर


वर्षा ने आज विदाई ली जाड़े ने कुछ अंगड़ाई ली

प्रकृति ने पावस बूँदो से रक्षण की नव भरपाई ली।


सूरज की किरणों के पथ से काले काले आवरण हटे

डूबे टीले महकन उठ्ठी दिन की रातों के चरण हटे।


पहले उदार थी गगन वृष्टि अब तो उदार हो उठे खेत

यह ऊग ऊग आई बहार वह लहराने लग गई रेत।


ऊपर से नीचे गिरने के दिन रात गए, छवियाँ छायीं

नीचे से ऊपर उठने की हरियाली, पुन: लौट आई।


अब पुन: बाँसुरी बजा उठे ब्रज के यमुना वाले कछार

धुल गए किनारे नदियों के धुल गए गगन में घन अपार।


अब सहज हो गए गति के वृत जाना नदियों के आर पार

अब खेतों के घर अन्नों की बंदनवारें हैं द्वार द्वार।


नालों नदियों सागरो सरों ने नभ से नीलांबर पाए

खेतों की मिटी कालिमा उठ वे हरे हरे सब हो आए।


मलयानिल खेल रही छवि से पंखिनियों ने कल गान किए

कलियाँ उठ आईं वृन्तों पर फूलों को नव मेहमान किए।


घिरने गिरने के तरल रहस्यों का सहसा अवसान हुआ

दाएँ बाएँ से उठी पवन उठते पौधों का मान हुआ।


आने लग गई धरा पर भी मौसमी हवा छवि प्यारी की

यादों में लौट रही निधियाँ मनमोहन कुंज विहारी की।

~ माखनलाल चतुर्वेदी


बूँद टपकी एक नभ से

किसी ने झुककर झरोखे से

कि जैसे हँस दिया हो

हँस रही-सी आँख ने जैसे

किसी को कस दिया हो

ठगा-सा कोई किसी की

आँख देखे रह गया हो

उस बहुत से रूप को

रोमांच रो के सह गया हो


बूँद टपकी एक नभ से

और जैसे पथिक छू

मुस्कान चौंके और घूमे

आँख उसकी जिस तरह

हँसती हुई-सी आँख चूमे

उस तरह मैंने उठाई आँख

बादल फट गया था

चंद्र पर आता हुआ-सा

अभ्र थोड़ा हट गया था


बूँद टपकी एक नभ से

ये कि जैसे आँख मिलते ही

झरोखा बन्द हो ले

और नूपुर ध्वनि झमक कर

जिस तरह द्रुत छन्द हो ले

उस तरह

बादल सिमटकर,

चंद्र पर छाए अचानक

और पानी के हज़ारों बूँद

तब आए अचानक

~ भवानीप्रसाद मिश्र


दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है 

मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है 


अच्छा सा कोई मौसम तन्हा सा कोई आलम 

हर वक़्त का रोना तो बेकार का रोना है 


बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने 

किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है 


ये वक़्त जो तेरा है ये वक़्त जो मेरा है 

हर गाम पे पहरा है फिर भी इसे खोना है 


ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं 

फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है 


आवारा-मिज़ाजी ने फैला दिया आँगन को 

आकाश की चादर है धरती का बिछौना है

~ निदा फ़ाज़ली