आज़ादी

चित्तो जेथा भोय शुन्नो , उच्छो जेथा शीर   

गेन जेथा मुक्तो 

जेथा गृहेर प्राचीर 

आपोन प्राङ्गोनतोले दिबोसॉर्बोरी 

बोसुधारे राखेनाइ खोण्डो खुद्रो कोरी... 

Where the mind is without fear and the head is held high

Where knowledge is free

Where the world has not been broken up into fragments

By narrow domestic walls

Where words come out from the depth of truth

Where tireless striving stretches its arms towards perfection

Where the clear stream of reason has not lost its way

Into the dreary desert sand of dead habit

Where the mind is led forward by thee

Into ever-widening thought and action

Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.

~रबीन्द्रनाथ टैगोर


सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है


ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तिरे ऊपर निसार

ले तिरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है


वाए क़िस्मत पाँव की ऐ ज़ोफ़ कुछ चलती नहीं

कारवाँ अपना अभी तक पहली ही मंज़िल में है


रहरव-ए-राह-ए-मोहब्बत रह न जाना राह में

लज़्ज़त-ए-सहरा-नवर्दी दूरी-ए-मंज़िल में है


शौक़ से राह-ए-मोहब्बत की मुसीबत झेल ले

इक ख़ुशी का राज़ पिन्हाँ जादा-ए-मंज़िल में है


आज फिर मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार बार

आएँ वो शौक़-ए-शहादत जिन के जिन के दिल में है


मरने वालो आओ अब गर्दन कटाओ शौक़ से

ये ग़नीमत वक़्त है ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है


माने-ए-इज़हार तुम को है हया, हम को अदब

कुछ तुम्हारे दिल के अंदर कुछ हमारे दिल में है


मय-कदा सुनसान ख़ुम उल्टे पड़े हैं जाम चूर

सर-निगूँ बैठा है साक़ी जो तिरी महफ़िल में


वक़्त आने दे दिखा देंगे तुझे ऐ आसमाँ

हम अभी से क्यूँ बताएँ क्या हमारे दिल में है


अब न अगले वलवले हैं और न वो अरमाँ की भीड़

सिर्फ़ मिट जाने की इक हसरत दिल-ए-'बिस्मिल' में है

~ बिस्मिल अज़ीमाबादी



चाह नहीं मैं सुरबाला के

गहनों में गूँथा जाऊँ,


चाह नहीं, प्रेमी-माला में

बिंध प्यारी को ललचाऊँ,


चाह नहीं, सम्राटों के शव

पर हे हरि, डाला जाऊँ,


चाह नहीं, देवों के सिर पर

चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।


मुझे तोड़ लेना वनमाली!

उस पथ पर देना तुम फेंक,


मातृभूमि पर शीश चढ़ाने

जिस पथ जावें वीर अनेक

~ माखनलाल चतुर्वेदी


उरूजे कामयाबी पर कभी हिंदोस्ताँ होगा। 

रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा॥ 


चखाएँगे मज़ा बर्बादी-ए-गुलशन का गुलचीं को। 

बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा। 


ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजर-ए-क़ातिल। 

पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा॥ 


जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़। 

न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा॥ 


वतन के आबरू का पास देखें कौन करता है। 

सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तहाँ होगा॥ 


शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले। 

वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा॥ 


कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे। 

जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा॥

~ जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी'



मेरे जज्बातों से इस कदर वाकिफ हैं मेरी कलम

मैं इश्क भी लिखना चाहूँ तो भी, इंकलाब लिख जाता हैं !

~ भगत सिंह


ऐ मेरे वतन के लोगों

तुम खूब लगा लो नारा

ये शुभ दिन है हम सब का

लहरा लो तिरंगा प्यारा

पर मत भूलो सीमा पर

वीरों ने है प्राण गंवाए

कुछ याद उन्हें भी कर लो 

जो लौट के घर न आये 


ऐ मेरे वतन के लोगों 

ज़रा आंख में भर लो पानी

जो शहीद हुए हैं उनकी

ज़रा याद करो क़ुर्बानी

    

जब घायल हुआ हिमालय

ख़तरे में पड़ी आज़ादी

जब तक थी सांस लड़े वो

फिर अपनी लाश बिछा दी

संगीन पे धर कर माथा 

सो गये अमर बलिदानी

जो शहीद हुए हैं उनकी

ज़रा याद करो क़ुर्बानी


जब देश में थी दीवाली

वो खेल रहे थे होली

जब हम बैठे थे घरों में

वो झेल रहे थे गोली

थे धन्य जवान वो आपने

थी धन्य वो उनकी जवानी

जो शहीद हुए हैं उनकी

ज़रा याद करो क़ुर्बानी


कोई सिख कोई जाट मराठा

कोई गुरखा कोई मदरासी

सरहद पर मरनेवाला 

हर वीर था भारतवासी

जो खून गिरा पवर्अत पर

वो खून था हिंदुस्तानी

जो शहीद हुए हैं उनकी

ज़रा याद करो क़ुर्बानी


थी खून से लथपथ काया

फिर बंदूक उठाके

दस दस को एक ने मारा

फिर गिर गये होश गंवा के

जब अन्त -समय आया तो

कह गये के अब मरते हैं

खुश रहना देश के प्यारों

अब हम तो सफ़र करते हैं

क्या लोग थे वो दीवाने

क्या लोग थे वो अभिमानी

जो शहीद हुए हैं उनकी

ज़रा याद करो क़ुर्बानी

    

तुम भूल न जाओ उनको

इस लिये कही ये कहानी

जो शहीद हुए हैं उनकी

ज़रा याद करो क़ुर्बानी


जय हिंद…

~ कवि प्रदीप


ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर 

वो इंतिज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहीं 

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू ले कर 

चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं 

फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल 

कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त-मौज का साहिल 

कहीं तो जा के रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़म दिल 

जवाँ लहू की पुर-असरार शाह-राहों से 

चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े 

दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से 

पुकारती रहीं बाहें बदन बुलाते रहे 

बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन 

बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन 

सुबुक सुबुक थी तमन्ना दबी दबी थी थकन 

सुना है हो भी चुका है फ़िराक़-ए-ज़ुल्मत-ओ-नूर 

सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम 

बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर 

नशात-ए-वस्ल हलाल ओ अज़ाब-ए-हिज्र हराम 

जिगर की आग नज़र की उमंग दिल की जलन 

किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं 

कहाँ से आई निगार-ए-सबा किधर को गई 

अभी चराग़-ए-सर-ए-रह को कुछ ख़बर ही नहीं 

अभी गिरानी-ए-शब में कमी नहीं आई 

नजात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई 

चले-चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई 

` फ़ैज़ अहमद फ़ैज़



स्वतंत्रता दिवस की पुकार 

पन्द्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है

सपने सच होने बाक़ी हैं, रावी की शपथ न पूरी है


जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई

वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई


कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं

उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं


हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती

तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती


इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है

इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है


भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं

सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं


लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया

पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया


बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है

कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है


दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे

गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे


उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें

जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें

~ अटल बिहारी वाजपेयी


“आजादी की पहली वर्षगाँठ”

आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।


आज़ादी का आया है पहला जन्म-दिवस,

उत्साह उमंगों पर पाला-सा रहा बरस,

यह उस बच्चे की सालगिरह-सी लगती है

जिसकी मां उसको जन्मदान करते ही बस

कर गई देह का मोह छोड़ स्वर्ग प्रयाण।

आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।


किस को बापू की नहीं आ रही आज याद,

किसके मन में है आज नहीं जागा विषाद,

जिसके सबसे ज्यादा श्रम यत्नों से आई

आजादी; उसको ही खा बैठा है प्रमाद,

जिसके शिकार हैं दोनों हिन्दू-मुसलमान।

आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।


कैसे हम उन लाखों को सकते है बिसार,

पुश्तहा-पुश्त की धरती को कर नमस्कार

जो चले काफ़िलों में मीलों के, लिए आस

कोई उनको अपनाएगा बाहें पसार—

जो भटक रहे अब भी सहते मानापमान,

आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।


कश्मीर और हैदराबाद का जन-समाज

आज़ादी की कीमत देने में लगा आज,

है एक व्यक्ति भी जब तक भारत में गुलाम

अपनी स्वतंत्रता का है हमको व्यर्थ नाज़,

स्वाधीन राष्ट्र के देने हैं हमको प्रमाण।

आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।


है आज उचित उन वीरों का करना सुमिरन,

जिनके आँसू, जिनके लोहू, जिनके श्रमकण,

से हमें मिला है दुनिया में ऐसा अवसर,

हम तान सकें सीना, ऊँची रक्खें गर्दन,

आज़ाद कंठ से आज़ादी का करें गान।

आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।


सम्पूर्ण जाति के अन्दर जागे वह विवेक--

जो बिखरे हैं, हो जाएं मिलकर पुनः एक,

उच्चादर्शों की ओर बढ़ाए चले पांव

पदमर्दित कर नीचे प्रलोभनों को अनेक,

हो सकें साधनाओं से ऐसे शक्तिमान,

दे सकें संकटापन्न विश्व को अभयदान।

आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।

~ हरिवंशराय बच्चन



यही जगह थी यही दिन था और यही लम्हात

सरों पे छाई थी सदियों से इक जो काली रात

इसी जगह इसी दिन तो मिली थी उस को मात

इसी जगह इसी दिन तो हुआ था ये एलान

अँधेरे हार गए ज़िंदाबाद हिन्दोस्तान

यहीं तो हम ने कहा था ये कर दिखाना है

जो ज़ख़्म तन पे है भारत के उस को भरना है

जो दाग़ माथे पे भारत के है मिटाना है

यहीं तो खाई थी हम सब ने ये क़सम उस दिन

यहीं से निकले थे अपने सफ़र पे हम उस दिन

यहीं था गूँज उठा वन्दे-मातरम उस दिन

है जुरअतों का सफ़र वक़्त की है राहगुज़र

नज़र के सामने है साठ मील का पत्थर

कोई जो पूछे किया क्या है कुछ किया है अगर

तो उस से कह दो कि वो आए देख ले आ कर

लगाया हम ने था जम्हूरियत का जो पौधा

वो आज एक घनेरा सा ऊँचा बरगद है

और उस के साए में क्या बदला कितना बदला है

कब इंतिहा है कोई इस की कब कोई हद है

चमक दिखाते हैं ज़र्रे अब आसमानों को

ज़बान मिल गई है सारे बे-ज़बानों को

जो ज़ुल्म सहते थे वो अब हिसाब माँगते हैं

सवाल करते हैं और फिर जवाब माँगते हैं

ये कल की बात है सदियों पुरानी बात नहीं

कि कल तलक था यहाँ कुछ भी अपने हाथ नहीं

विदेशी राज ने सब कुछ निचोड़ डाला था

हमारे देश का हर कर्धा तोड़ डाला था

जो मुल्क सूई की ख़ातिर था औरों का मुहताज

हज़ारों चीज़ें वो दुनिया को दे रहा है आज

नया ज़माना लिए इक उमंग आया है

करोड़ों लोगों के चेहरे पे रंग आया है

ये सब किसी के करम से न है इनायत से

यहाँ तक आया है भारत ख़ुद अपनी मेहनत से

जो कामयाबी है उस की ख़ुशी तो पूरी है

मगर ये याद भी रखना बहुत ज़रूरी है

कि दास्तान हमारी अभी अधूरी है

बहुत हुआ है मगर फिर भी ये कमी तो है

बहुत से होंठों पे मुस्कान आ गई लेकिन

बहुत सी आँखें है जिन में अभी नमी तो है

यही जगह थी यही दिन था और यही लम्हात

यहीं तो देखा था इक ख़्वाब सोची थी इक बात

मुसाफ़िरों के दिलों में ख़याल आता है

हर इक ज़मीर के आगे सवाल आता है

वो बात याद है अब तक हमें कि भूल गए

वो ख़्वाब अब भी सलामत है या फ़ुज़ूल गए

चले थे दिल में लिए जो इरादे पूरे हुए

ये कौन है कि जो यादों में चरख़ा कातता है

ये कौन है जो हमें आज भी बताता है

है वादा ख़ुद से निभाना हमें अगर अपना

तो कारवाँ नहीं रुक पाए भूल कर अपना

है थोड़ी दूर अभी सपनों का नगर अपना

मुसाफ़िरो अभी बाक़ी है कुछ सफ़र अपना

~ जावेद अख़्तर 


सिंहासन खाली करो कि जनता आती है 

सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।

 

जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,

जाड़े-पाले की कसक सदा सहने वाली,

जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे

तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली ।


जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम,

"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"

"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?"

'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?"


मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,

जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;

अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के

जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।


लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।


हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,

साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,

जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?

वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है ।


अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार बीता;

 गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं;

यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय

चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं ।


सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा,

तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो

अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,

तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो ।


आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख,

मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ?

देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,

देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में ।


फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,

धूसरता सोने से शृँगार सजाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।

~ रामधारी सिंह "दिनकर"


नमो, नमो, नमो।

नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो !

नमो नागाधिराज - श्रृंग की विहारिणी !

नमो अनंत सौख्य-शक्ति-शील-धारिणी!

प्रणय-प्रसारिणी, नमो अरिष्ट-वारिणी!

नमो मनुष्य की शुभेषणा-प्रचारिणी!

नवीन सूर्य की नयी प्रभा,नमो, नमो!


हम न किसी का चाहते तनिक, अहित, अपकार।

प्रेमी सकल जहान का भारतवर्ष उदार।

सत्य न्याय के हेतु फहर फहर ओ केतु

हम विचरेंगे देश-देश के बीच मिलन का सेतु

पवित्र सौम्य, शांति की शिखा, नमो, नमो!


तार-तार में हैं गुंथा ध्वजे, तुम्हारा त्याग!

दहक रही है आज भी, तुम में बलि की आग।

सेवक सैन्य कठोर हम चालीस करोड़

कौन देख सकता कुभाव से ध्वजे, तुम्हारी ओर

करते तव जय गान वीर हुए बलिदान,

अंगारों पर चला तुम्हें ले सारा हिन्दुस्तान!

प्रताप की विभा, कृषानुजा, नमो, नमो!

~ रामधारी सिंह दिनकर (ध्वज-वंदना)


क़दम क़दम बढ़ाए जा 

ख़ुशी के गीत गाए जा; 

ये ज़िंदगी है क़ौम की, 

तू क़ौम पे लुटाए जा। 


उड़ी तमिस्र रात है, जगा नया प्रभात है, 

चली नई जमात है, मानो कोई बरात है, 


समय है, मुस्कुराए जा, 

ख़ुशी के गीत गाए जा। 

ये ज़िंदगी है क़ौम की 

तू क़ौम पे लुटाए जा। 


जो आ पड़े कोई विपत्ति मार के भगाएँगे, 

जो आए मौत सामने तो दाँत तोड़ लाएँगे, 


बहार की बहार में 

बहार ही लुटाए जा। 

क़दम क़दम बढ़ाए जा, 

ख़ुशी के गीत गाए जा। 

जहाँ तलक न लक्ष्य पूर्ण हो समर करेंगे हम, 

खड़ा हो शत्रु सामने तो शीश पै चढ़ेंगे हम, 


विजय हमारे हाथ है 

विजय-ध्वजा उड़ाए जा। 

क़दम क़दम बढ़ाए जा, 

ख़ुशी के गीत गाए जा। 


क़दम बढ़े तो बढ़ चले, आकाश तक चढ़ेंगे हम, 

लड़े हैं, लड़ रहे हैं, तो जहान से लड़ेंगे हम; 


बड़ी लड़ाइयाँ हैं तो 

बड़ा क़दम बढ़ाए जा। 

क़दम क़दम बढ़ाए जा 

ख़ुशी के गीत गाए जा। 


निगाह चौमुखी रहे, विचार लक्ष्य पर रहे, 

जिधर से शत्रु आ रहा उसी तरफ़ नज़र रहे, 


स्वतंत्रता का युद्ध है, 

स्वतंत्र होके गाए जा। 

क़दम क़दम बढ़ाए जा, 

ख़ुशी के गीत गाए जा। 

ये ज़िंदगी है क़ौम की 

तू क़ौम पे लुटाए जा।

~ वंशीधर शुक्ल


उठ जाग मुसाफ़िर! भोर भई, 

अब रैन कहाँ जो सोवत है। 

जो सोवत है सो खोवत है, 

जो जागत है सो पावत है। 

उठ जाग मुसाफ़िर! भोर भई, 

अब रैन कहाँ जो सोवत है।


टुक नींद से अँखियाँ खोल ज़रा 

पल अपने प्रभु से ध्यान लगा, 

यह प्रीति करन की रीति नहीं 

जग जागत है, तू सोवत है। 


तू जाग जगत की देख उड़न, 

जग जागा तेरे बंद नयन, 

यह जन जाग्रति की बेला है, 

तू नींद की गठरी ढोवत है। 


लड़ना वीरों का पेशा है, 

इसमें कुछ भी न अंदेशा है; 

तू किस ग़फ़लत में पड़ा-पड़ा 

आलस में जीवन खोवत है। 


है आज़ादी ही लक्ष्य तेरा, 

उसमें अब देर लगा न ज़रा; 

जब सारी दुनिया जाग उठी 

तू सिर खुजलावत रोवत है। 


उठ जाग मुसाफ़िर! भोर भई 

अब रैन कहाँ जो सोवत है।

~ वंशीधर शुक्ल

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,

झंडा ऊंचा रहे हमारा।


सदा शक्ति बरसाने वाला,

प्रेम सुधा सरसाने वाला,


वीरों को हरषाने वाला,

मातृभूमि का तन-मन सारा।। झंडा...।


स्वतंत्रता के भीषण रण में,

लखकर बढ़े जोश क्षण-क्षण में,


कांपे शत्रु देखकर मन में,

मिट जाए भय संकट सारा।। झंडा...।


इस झंडे के नीचे निर्भय,

लें स्वराज्य यह अविचल निश्चय,


बोलें भारत माता की जय,

स्वतंत्रता हो ध्येय हमारा।। झंडा...।


आओ! प्यारे वीरो, आओ।

देश-धर्म पर बलि-बलि जाओ,


एक साथ सब मिलकर गाओ,

प्यारा भारत देश हमारा।। झंडा...।


इसकी शान न जाने पाए,

चाहे जान भले ही जाए,


विश्व-विजय करके दिखलाएं,

तब होवे प्रण पूर्ण हमारा।। झंडा...।

- श्यामलाल गुप्त पार्षद