जादुई पर्दे के बोल - 1
तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
तू भले रत्ती भर ना सुनती है
मैं तेरा नाम बुदबुदाता हूँ
किसी लंबे सफ़र की रातों में
तुझे अलाव सा जलाता हूँ
–
काठ के ताले हैं
आँख पे डाले हैं
उनमें इशारों की चाभियाँ लगा
काठ के ताले हैं
आँख पे डाले हैं
उनमें इशारों की चाबियाँ लगा
रात जो बाकी है
शाम सताती है
नीयत में थोड़ी...
नीयत में थोड़ी खराबियाँ लगा, खराबियाँ लगा
मैं हूँ पानी के बुलबुले जैसा
तूझे सोचूँ तो फूट जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
~ वरुण ग्रोवर
मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ ए'तिराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ
एक बाज़ू उखड़ गया जब से
और ज़ियादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
~ दुष्यंत कुमार
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
आँधी में भी जलती रही गाँधी तेरी मशाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी ...
जब जब तेरा बिगुल बजा जवान चल पड़े
मज़दूर चल पड़े थे और किसान चल पड़े
हिंदू और मुसलमान, सिख पठान चल पड़े
कदमों में तेरी कोटि कोटि प्राण चल पड़े
फूलों की सेज छोड़ के दौड़े जवाहरलाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
जग में जिया है कोई तो बापू तू ही जिया
तूने वतन की राह में सब कुछ लुटा दिया
माँगा न कोई तख्त न कोई ताज भी लिया
अमृत दिया तो ठीक मगर खुद ज़हर पिया
जिस दिन तेरी चिता जली, रोया था महाकाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
रघुपति राघव राजा राम
~ कवि प्रदीप
ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ
ज़रा हट के, ज़रा बच के
ये है बॉम्बे मेरी जाँ
कहीं बिल्डिंग, कहीं ट्रामे, कहीं मोटर, कहीं मिल
मिलता है यहाँ सब कुछ, इक मिलता नहीं दिल
इन्साँ का नहीं कहीं नाम-ओ-निशाँ
बेघर को आवारा यहाँ कहते हँस-हँस
खुद काटे गले सबके, कहे इसको बिज़नस
इक चीज़ के है कई नाम यहाँ
आगे है
बुरा दुनिया को है कहता, ऐसा भोला तो ना बन
जो है करता, वो है भरता, है यहाँ का ये चलन
दादागिरी नहीं चलने की यहाँ
ये है बॉम्बे...
ऐ दिल है मुश्किल...
ऐ दिल है आसाँ जीना यहाँ
सुनो मिस्टर, सुनो बन्धु
ये है बॉम्बे मेरी जाँ
~ मज़रूह सुल्तानपुरी (CID 1956)
कोई हमदम न रहा कोई सहारा न रहा
हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा
शाम तन्हाई की है आएगी मंज़िल कैसे
जो मुझे राह दिखा दे वही तारा न रहा
ऐ नज़ारो न हँसो मिल न सकूँगा तुम से
तुम मिरे हो न सके मैं भी तुम्हारा न रहा
क्या बताऊँ मैं कहाँ यूँ ही चला जाता हूँ
जो मुझे फिर से बुला ले वो इशारा न रहा
~ मजरूह सुल्तानपुरी (झुमरू 1961)
तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम
ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम
आगे कहते हैं
लो आज हम ने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उमीद
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम
~ साहिर लुधियानवी (प्यासा 1957)
कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया
हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया
किस लिए जीते हैं हम किस के लिए जीते हैं
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया
कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया
~ साहिर लुधियानवी (हम दोनों 1961)
वो सुबह कभी तो आयेगी
इन काली सदियों के सर से, जब रात का आँचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नग़में गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी
जिस सुबह की ख़ातिर जुग-जुग से, हम सब मर-मर कर जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में, हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर, इक दिन तो करम फ़र्मायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी
माना कि अभी तेरे मेरे, अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर, इन्सानों की कीमत कुछ भी नहीं
इंसानों की इज्जत जब झूठे, सिक्कों में न तौली जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी
~ साहिर लुधियानवी (फिर सुबह होगी 1958)
फ़ाक़ों की चिताओं पर जिस दिन इंसाँ न जलाए जाएँगे
सीनों के दहकते दोज़ख़ में अरमाँ न जलाए जाएँगे
ये नरक से भी गंदी दुनिया जब स्वर्ग बनाई जाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
वो सुबह हमीं से आएगी
जब धरती करवट बदलेगी जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे
जब पाप घरौंदे फूटेंगे जब ज़ुल्म के बंधन टूटेंगे
उस सुबह को हम ही लाएँगे वो सुबह हमीं से आएगी
वो सुबह हमीं से आएगी
मनहूस समाजी ढाँचों में जब ज़ुल्म न पाले जाएँगे
जब हाथ न काटे जाएँगे जब सर न उछाले जाएँगे
जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी
वो सुब्ह हमीं से आएगी
संसार के सारे मेहनत-कश खेतों से मिलों से निकलेंगे
बे-घर बे-दर बे-बस इंसाँ तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अम्न और ख़ुश-हाली के फूलों से सजाई जाएगी
वो सुब्ह हमीं से आएगी
~ साहिर लुधियानवी
ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा
इस रात की तक़दीर सँवर जाए तो अच्छा
जिस तरह से थोड़ी सी तिरे साथ कटी है
बाक़ी भी उसी तरह गुज़र जाए तो अच्छा
दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या
ये बोझ अगर दिल से उतर जाए तो अच्छा
वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया है
इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा
~ साहिर लुधियानवी (काजल 1965)
मैं पल दो पल का शाइ'र हूँ पल दो पल मिरी कहानी है
पल दो पल मेरी हस्ती है पल दो पल मिरी जवानी है
मुझ से पहले कितने शाइ'र आए और आ कर चले गए
कुछ आहें भर कर लौट गए कुछ नग़्मे गा कर चले गए
वो भी इक पल का क़िस्सा थे मैं भी इक पल का क़िस्सा हूँ
कल तुम से जुदा हो जाऊँगा गो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ
पल दो पल में कुछ कह पाया इतनी ही सआ'दत काफ़ी है
पल दो पल तुम ने मुझ को सुना इतनी ही इनायत काफ़ी है
कल और आएँगे नग़्मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझ से बेहतर कहने वाले तुम से बेहतर सुनने वाले
हर नस्ल इक फ़स्ल है धरती की आज उगती है कल कटती है
जीवन वो महँगी मुद्रा है जो क़तरा क़तरा बटती है
सागर से उभरी लहर हूँ मैं सागर में फिर खो जाऊँगा
मिट्टी की रूह का सपना हूँ मिट्टी में फिर सो जाऊँगा
कल कोई मुझ को याद करे क्यूँ कोई मुझ को याद करे
मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए क्यूँ वक़्त अपना बरबाद करे
~ साहिर लुधियानवी (कभी कभी 1976)
वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो
पुकारते हैं ये ज़मीन-ओ-आसमां शहीद हो
शहीद तेरी मौत ही तेरे वतन की ज़िंदगी
तेरे लहू से जाग उठेगी इस चमन में ज़िंदगी
खिलेंगे फूल उस जगह कि तू जहाँ शहीद हो,
गुलाम उठ वतन के दुश्मनों से इंतक़ाम ले
इन अपने दोनों बाजुओं से खंजरों का काम ले
चमन के वास्ते चमन के बाग़बां शहीद हो
~ राजा मेहदी अली खान (शहीद 1948)
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलसिताँ हमारा
पर्बत है इस के ऊँचे प्यारी हैं इस की नदियाँ
आकाश में इसी के गुज़री हज़ारों सदियाँ
हँसता है बिजलियों पर ये आशियाँ हमारा
वीरान कर दिया था आँधी ने इस चमन को
दे कर लहू बचाया गाँधी ने इस चमन को
रक्षा करेगा इस की हर नौजवाँ हमारा
~ राजा मेहदी अली खान (भाई बहन 1959)
आप की नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे
दिल की ऐ धड़कन ठहर जा मिल गई मंज़िल मुझे
जी हमें मंज़ूर है आपका ये फ़ैसला
कह रही है हर नज़र बंदा-परवर शुक्रिया
हँस के अपनी ज़िंदगी में कर लिया शामिल मुझे
दिल की ऐ धड़कन ठहर जा मिल गई मंज़िल मुझे
क्यों मैं तूफ़ाँ से डरूँ मेरा साहिल आप हैं
कोई तूफ़ानों से कह दे मिल गया साहिल मुझे
~ राजा मेहदी अली खान (अनपढ़ 1962)
नैना बरसे रिम-झिम रिम-झिम पिया तोरे आवन की आस
ये लाखों ग़म ये तन्हाई मोहब्बत की ये रुस्वाई
कटी ऐसी कई रातें न तुम आए न मौत आई
ये बिंदिया का तारा जैसे हो अंगारा
मेहंदी मेरे हाथों की उदास
नैना बरसे रिम-झिम रिम-झिम पिया तोरे आवन की आस
~ राजा मेहदी अली खान (वो कौन थी 1964)
है इसी में प्यार की आबरू
वो जफ़ा करें मैं वफ़ा करूँ
जो वफ़ा भी काम न आ सके
तो वही कहें कि मैं क्या करूँ
मुझे ग़म भी उन का 'अज़ीज़ है
कि उन्हीं की दी हुई चीज़ है
यही ग़म है अब मिरी ज़िंदगी
इसे कैसे दिल से जुदा करूँ
जो न बन सके मैं वो बात हूँ
जो न ख़त्म हो मैं वो रात हूँ
ये लिखा है मेरे नसीब में
यूँ ही शम' बन के जला करूँ
न किसी के दिल की हूँ आरज़ू
न किसी नज़र की हूँ जुस्तुजू
मैं वो फूल हूँ जो उदास हूँ
न बहार आए तो क्या करूँ
~ राजा मेहदी अली खान (अनपढ़ 1962)
इस एपिसोड में हम से एक त्रुटि हुई - हमने कहा था कि “अनपढ़” 1969 में आयी थी. रिलीज़ का सही साल है 1962.