दोस्ती


दोस्ती ख़्वाब है और ख़्वाब की ता'बीर भी है

रिश्ता-ए-इश्क़ भी है, याद की ज़ंजीर भी है

- अज्ञात


दोस्ती आम है, लेकिन ऐ दोस्त,

दोस्त मिलता है बड़ी मुश्किल से

- हफ़ीज़ होशियारपुरी 


मैं यादों का किस्सा खोलूँ तो, 

कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं


मैं गुजरे पल को सोचूँ तो, 

कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं

अब जाने कौन सी नगरी में,

आबाद हैं जाकर मुद्दत से


मैं देर रात तक जागूँ तो ,

कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं

कुछ बातें थीं फूलों जैसी,

कुछ लहजे खुशबू जैसे थे,


मैं  शहर-ए-चमन में टहलूँ तो,

कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं.

सबकी जिंदगी बदल गयी,

एक नए सिरे में ढल गयी,

किसी को नौकरी से फुरसत नही

किसी को दोस्तों की जरुरत नही

सारे यार गुम हो गये हैं

"तू" से "तुम" और "आप" हो गये है


मैं गुजरे पल को सोचूँ तो, 

कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं

धीरे धीरे उम्र कट जाती है

जीवन यादों की पुस्तक बन जाती है,

कभी किसी की याद बहुत तड़पाती है

और कभी यादों के सहारे ज़िन्दगी कट जाती है 


किनारो पे सागर के खजाने नहीं आते,

फिर जीवन में दोस्त पुराने नहीं आते,

जी लो इन पलों को हँस के दोस्त,

फिर लौट के दोस्ती के जमाने नहीं आते 

- डॉ हरिवंश राय बच्चन 


हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है 

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है

- ग़ालिब 


दोस्ती जब किसी से की जाए 

दुश्मनों की भी राय ली जाए

- राहत इन्दोरी 



रश्मिरथी (कुछ चुनिंदा पंक्तियाँ)

 'हित-वचन नहीं तूने माना,

मैत्री का मूल्य न पहचाना,

तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,

अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।

याचना नहीं, अब रण होगा,

जीवन-जय या कि मरण होगा।

'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,

बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,

फण शेषनाग का डोलेगा,

विकराल काल मुँह खोलेगा।


दुर्योधन! रण ऐसा होगा।

फिर कभी नहीं जैसा होगा।

'भाई पर भाई टूटेंगे,

विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,

वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,

सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।


आखिर तू भूशायी होगा,

हिंसा का पर, दायी होगा।'

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,

चुप थे या थे बेहोश पड़े।

केवल दो नर ना अघाते थे,

धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।

कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,

दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!


मैत्री की बड़ी सुखद छाया,

शीतल हो जाती है काया,

धिक्कार-योग्य होगा वह नर,

जो पाकर भी ऐसा तरुवर,

हो अलग खड़ा कटवाता है

खुद आप नहीं कट जाता है.


जिस नर की बाह गही मैने,

जिस तरु की छाँह गहि मैने,

उस पर न वार चलने दूँगा,

कैसे कुठार चलने दूँगा,

जीते जी उसे बचाऊँगा,

या आप स्वयं कट जाऊँगा,


मित्रता बड़ा अनमोल रतन,

कब उसे तोल सकता है धन?

धरती की तो है क्या बिसात?

आ जाय अगर बैकुंठ हाथ.

उसको भी न्योछावर कर दूँ,

कुरूपति के चरणों में धर दूँ.

"सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,

उस दिन के लिए मचलता हूँ,

यदि चले वज्र दुर्योधन पर,

ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर.

कटवा दूँ उसके लिए गला,

चाहिए मुझे क्या और भला?


कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?

साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?

क्या नहीं आपने भी जाना?

मुझको न आज तक पहचाना?

जीवन का मूल्य समझता हूँ,

धन को मैं धूल समझता हूँ.

धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं,

साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं.


भुजबल से कर संसार विजय,

अगणित समृद्धियों का सन्चय,

दे दिया मित्र दुर्योधन को,

तृष्णा छू भी ना सकी मन को.

वैभव विलास की चाह नहीं,

अपनी कोई परवाह नहीं,

बस यही चाहता हूँ केवल,

दान की देव सरिता निर्मल,

करतल से झरती रहे सदा,

निर्धन को भरती रहे सदा.


पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?

चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास,

कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास,

पर वह भी यहीं गवाना है,

कुछ साथ नही ले जाना है.


मुझसे मनुष्य जो होते हैं,

कंचन का भार न ढोते हैं,

पाते हैं धन बिखराने को,

लाते हैं रतन लुटाने को,

जग से न कभी कुछ लेते हैं,

दान ही हृदय का देते हैं.


प्रासादों के कनकाभ शिखर,

होते कबूतरों के ही घर,

महलों में गरुड़ ना होता है,

कंचन पर कभी न सोता है.

रहता वह कहीं पहाड़ों में,

शैलों की फटी दरारों में.

- रामधारी सिंह दिनकर 



मैंने ज़िन्दगी में दोस्त नहीं ढूंढे 

मैंने दोस्त में ज़िन्दगी ढूंढी है 


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