जादुई पर्दे के बोल - 2


ज़िंदगी एक सफ़र है सुहाना

यहाँ कल क्या हो किसने जाना


हँसते-गाते जहाँ से गुज़र

दुनियाँ की तू परवाह ना कर

हँसते-गाते जहाँ से गुज़र

दुनिया की तू परवाह ना कर

मुस्कुराते हुए दिन बिताना

यहाँ कल क्या हो किस ने जाना


मौत आनी है, आएगी एक दिन

जान जानी है, जाएगी एक दिन

अरे, मौत आनी है, आएगी एक दिन

जान जानी है, जाएगी एक दिन

ऐसी बातों से क्या घबराना?

यहाँ कल क्या हो किस ने जाना

~ हसरत जयपुरी (अंदाज़ 1971)



 एहसान तेरा होगा मुझपर, दिल चाहता है वो कहने दो

मुझे तुमसे मुहब्बत हो गई है मुझे 

पलकों की छांव में रहने दो


मर भी गए तो देंगे दुआएं

उड़-उड़ के कहेगी ख़ाक सनम

ये दर्द-ए-मोहब्बत सहने दो ...

~ हसरत जयपुरी (जंगली 1961)


अपने रुख पे निगाह करने दो

खूबसूरत गुनाह करने दो

रुख से पर्दा हटाओ जान-ए-हया

आज दिल को तबाह करने दो


रुख से ज़रा नक़ाब उठा दो, मेरे हुज़ूर

जल्वा फिर एक बार दिखा दो, मेरे हुज़ूर


तुम हमसफ़र मिले हो मुझे इस हयात में 

मिल जाए चाँद जैसे कोई सूनी रात में

जागे तुम कहाँ ये बता दो, मेरे हुज़ूर

रुख से...

~ हसरत जयपुरी (मेरे हुज़ूर 1968)



 इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े

हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े


जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी पी के गर्म अश्क

यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े


इक तुम कि तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है 

इक हम कि चल पड़े तो बहर-हाल चल पड़े


साक़ी सभी को है ग़म-ए-तिश्ना-लबी मगर

मय है उसी की नाम पे जिस के उबल पड़े


मुद्दत के बा'द उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह

जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े

~ कैफ़ी आज़मी 

 


    

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो 

क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो 


आँखों में नमी हँसी लबों पर 

क्या हाल है क्या दिखा रहे हो 


बन जाएँगे ज़हर पीते पीते 

ये अश्क जो पीते जा रहे हो 


जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है 

तुम क्यूँ उन्हें छेड़े जा रहे हो 


रेखाओं का खेल है मुक़द्दर 

रेखाओं से मात खा रहे हो

~ कैफ़ी आज़मी (अर्थ, 1982)


झुकी झुकी सी नज़र बे-क़रार है कि नहीं 

दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं 


तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता 

मिरी तरह तिरा दिल बे-क़रार है कि नहीं 


वो पल कि जिस में मोहब्बत जवान होती है 

उस एक पल का तुझे इंतिज़ार है कि नहीं 


तिरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को 

तुझे भी अपने पे ये ए'तिबार है कि नहीं

~ कैफ़ी आज़मी (अर्थ, 1982)


कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यूँ है 

वो जो अपना था वही और किसी का क्यूँ है 

यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यूँ है 

यही होता है तो आख़िर यही होता क्यूँ है

इस लुटे घर पे दिया करता है दस्तक कोई 

आस जो टूट गई फिर से बंधाता क्यूँ है 

तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता 

कहते हैं प्यार का रिश्ता है जनम का रिश्ता 

है जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यूँ है

~ कैफ़ी आज़मी (अर्थ, 1982)


कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता

कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता


तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो

जहाँ उम्मीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता


कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखें

छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता


ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं

ज़बाँ मिली है मगर हम-ज़बाँ नहीं मिलता


चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है

ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

~ निदा फ़ाज़ली (आहिस्ता आहिस्ता, 1981)


क्यों ज़िन्दगी की राह में मजबूर हो गए

इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए


ऐसा नहीं कि हमको कोई भी खुशी नहीं

लेकिन ये ज़िन्दगी तो कोई ज़िन्दगी नहीं

क्यों इसके फ़ैसले हमें मंज़ूर हो गए, 

इतने हुए ...


पाया तुम्हें तो हमको लगा तुमको खो दिया

हम दिल पे रोए और ये दिल हम पे रो दिया

पलकों से ख़्वाब क्यों गिरे क्यों चूर हो गए,

इतने हुए …

~ जावेद अख़्तर (साथ- साथ, 1982)


तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी

हैरान हूं मैं

ओ हैरान हूं मैं

तेरे मासूम सवालों से

परेशान हूं मैं

ओ परेशान हूं मैं

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी

हैरान हूं मैं

ओ हैरान हूं मैं

तेरे मासूम सवालों से

परेशान हूं मैं

ओ परेशान हूं मैं


जीने के लिए सोचा ही नहीं

दर्द संभालने होंगे

जीने के लिए सोचा ही नहीं

दर्द संभालने होंगे

मुस्कुराए तो मुस्कुराने के 

कर्ज उतारने होंगे 

हो….  मुस्कुराऊं कभी तो लगता है

जैसे होठों पे कर्ज रखा है

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी

हैरान हूं मैं

ओ हैरान हूं मैं


जिंदगी तेरे गम ने हमें

रिश्ते नये समझाए 

जिंदगी तेरे गम ने हमें

रिश्ते नये समझाए

मिले जो हमें धूप में मिले

छांव के ठंडे साये

हो। …. तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी

हैरान हूं मैं

ओ हैरान हूं मैं


आज अगर भर आये हैं

बूंदें बरस जाएगी

आज अगर भर आये हैं

बूंदें बरस जाएगी

कल क्या पता इनके लिए

आंखें तरस जाएंगी

हो जाने कब गुम हुआ, कहाँ खोया

एक आंसू छुपा के रखा था

हो.....  तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी

हैरान हूं मैं

ओ हैरान हूं मैं

तेरे मासूम सवालों से

परेशान हूं मैं

ओ परेशान हूं मैं

ओ परेशान हूं मैं

ओ परेशान हूं मैं.

~ गुलज़ार (मासूम, 1983)


दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन - (२)

बैठे रहे तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए

दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...


जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर - (२)

आँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साए को

औंधे पड़े रहे कभी करवट लिये हुए

दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...


या गर्मियों की रात जो पुरवाईयाँ चलें - (२)

ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागें देर तक

तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए

दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...


बर्फ़ीली सर्दियों में किसी भी पहाड़ पर - (२)

वादी में गूँजती हुई खामोशियाँ सुनें

आँखों में भीगे भीगे से लम्हे लिये हुए

दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन…

~ गुलज़ार (मौसम, 1975)


एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में

आब-ओ-दाना ढूँढता है, आशियाना ढूँढता है


दिन खाली खाली बर्तन है, और रात है जैसे अंधा कुआँ

इन सूनी अन्धेरी आँखों में, आँसू की जगह आता हैं धुंआ

जीने की वजह तो कोई नहीं, मरने का बहाना ढूंढता है

एक अकेला इस शहर में


इन उम्र से लम्बी सड़कों को, मन्ज़िल पे पहुँचते देखा नहीं

बस दौड़ती फिरती रहती हैं, हम ने तो ठहरते देखा नहीं

इस अजनबी से शहर में, जाना पहचाना ढूँढता है

एक अकेला इस शहर में

~ गुलज़ार (घरौंदा, 1977)


फिर ले आया दिल मजबूर क्या कीजे 

रास न आया रहना दूर क्या कीजे 

दिल कह रहा उसे मुकम्मल कर भी आओ 

वो जो अधूरी सी बात बाकी है 


करते हैं हम आज कुबूल क्या कीजे 

हो गयी थी जो हमसे भूल क्या कीजे 

दिल कह रहा उसे मयस्सर कर भी आओ 

वो जो दबी सी आस बाकी है वो 

जो दबी सी आंच बाकी है 

~ सईद कादरी (बर्फी, 2012 )


तुझसे ऐसा उलझा दिल धागा-धागा खिंचा (धागा-धागा)

तुझसे ऐसा उलझा दिल धागा-धागा खिंचा

दरगाह पे जैसे हो चादरों सा बिछा

यूँ ही रोज़ ये उधड़ा बुना

क़िस्सा इश्क़ का कई बार

हमने फिर से लिखा

आगे है 

बेसुरे दिल की ये धुन

करता दलीलें तू सुन

आईना तू

तू ही पहचाने ना, जो हूँ वो माने ना

ना अजनबी, तू बन अभी

हूंक है दिल में उठी

आलापों सी है बजी

साँसों में तू

मद्धम से रागों सा, केसर के धागों सा यूँ घुल गया

मैं गुम गया

ओ हो, दिल पे धुँधला सा सलेटी रंग कैसा चढ़ा

तुझसे ऐसा उलझा दिल धागा-धागा खिंचा

~ अन्विता दत्त (फिल्लौरी, 2017)



क़दम बढ़ा ले

हदों को मिटा ले

आजा  ख़ालीपन में, पी का घर तेरा

तेरे बिन ख़ाली, आजा, ख़ालीपन में

तेरे बिन ख़ाली, आजा, ख़ालीपन में

रंगरेज़ा


जब कहीं पे कुछ नहीं था, कुछ भी नहीं था

वही था, वही था, वही था, वही था

जब कहीं पे कुछ नहीं था, कुछ भी नहीं था

वही था, वही था, वही था, वही था

वह जो मुझ में समाया

मौला, वही वही माया


ओ मुझपे करम सरकार तेरा

अर्ज़ तुझे, कर दे मुझे, मुझसे ही रिहा

अब मुझको भी हो दीदार मेरा

कर दे मुझे, मुझसे ही रिहा

मुझसे ही रिहा...

मन के मेरे ये भरम

कच्चे मेरे ये करम

लेके चला है कहाँ, मैं तो जानूं ही ना 

~ इरशाद कामिल (रॉकस्टार, 2011)

 

अर्ज़ियाँ सारी मैं चेहरे पे लिख के लाया हूँ

तुम से क्या माँगू मैं

तुम ख़ुद ही समझ लो

मौला मेरे मौला

दरारें-दरारें हैं माथे पे मौला

मरम्मत मुक़द्दर की कर दो मौला

मेरे मौला

तेरे दर पे झुका हूँ, मिटा हूँ, बना हूँ

मरम्मत मुक़द्दर की कर दो मौला


टूट के बिखरना मुझको ज़रूर आता है

हो, टूट के बिखरना मुझको ज़रूर आता है

वरना इबादत वाला शऊर आता है

सजदे में रहने दो, अब कहीं ना जाऊँगा

सजदे में रहने दो, अब कहीं ना जाऊँगा

अब जो तुमने ठुकराया तो सँवर ना पाऊँगा

मौला, मौला, मौला, मेरे मौला

~ प्रसून जोशी (Delhi -6, 2009)


ज़िन्दा हैं तो प्याला पुरा भर ले

कंचा फूटे चूरा कांच कर ले

ज़िन्दगी का ये घड़ा ले

एक सांस में चढ़ा ले

हिचकियों में क्या है मरना

पूरा मर ले


उलझे क्यूँ पैरों में ये ख़्वाब

क़दमों से रेशम खींच दे

पीछे कुछ ना आगे का हिसाब

इस पल की क्यारी सींच दे

आग जुबां पे रख दे

फिर चोट के होठ भी गायेंगे

घाव गुनगुनायेंगे

तेरे दर्द गीत बन जायेंगे

~ प्रसून जोशी  (भाग मिल्खा भाग, 2013)