रिश्ते 


रिश्ते बस रिश्ते होते हैं

कुछ इक पल के

कुछ दो पल के


कुछ परों से हल्के होते हैं

बरसों के तले चलते-चलते

भारी-भरकम हो जाते हैं


कुछ भारी-भरकम बर्फ़ के-से

बरसों के तले गलते-गलते

हलके-फुलके हो जाते हैं


नाम होते हैं रिश्तों के

कुछ रिश्ते नाम के होते हैं

रिश्ता वह अगर मर जाये भी

बस नाम से जीना होता है


बस नाम से जीना होता है

रिश्ते बस रिश्ते होते हैं

~ गुलज़ार 


तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़याल

हमारे हाथ में कुछ है मगर है क्या कहिए

~ मिर्ज़ा ग़ालिब


कहा है किस ने कि 'ग़ालिब' बुरा नहीं लेकिन

सिवाए इस के कि आशुफ़्ता-सर है क्या कहिए

~ मिर्ज़ा ग़ालिब


मैले हो जाते हैं रिश्ते भी लिबासों की तरह

दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूँ ही सही

~ निदा फ़ाज़ली 


मेरे कपड़ों में टंगा है

तेरा ख़ुश-रंग लिबास!


घर पे धोता हूँ हर बार उसे और सुखा के फिर से

अपने हाथों से उसे इस्त्री करता हूँ मगर


इस्त्री करने से जाती नहीं शिकनें उस की

और धोने से गिले-शिकवों के चिकते नहीं मिटते!


ज़िंदगी किस क़दर आसाँ होती

रिश्ते गर होते लिबास


और बदल लेते क़मीज़ों की तरह!

~ गुलज़ार  


अब जो रिश्तों में बँधा हूँ तो खुला है मुझ पर

कब परिंद उड़ नहीं पाते हैं परों के होते

~ जौन एलिया


तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था

फिर उस के बा'द मुझे कोई अजनबी न मिला

~ बशीर बद्र


बचपन में

पिता के कंधे पर बैठ कर

मैं बाज़ार घूमने जाता था।

पिता पहाड़ की तरह

चलते भीड़ की तरह

उनके कंधे पर मैं

जंगली तोते की तरह बैठा रहता।


बाद में पिता

ग़ायब हो गए

कहते हैं खेल, कुदाल,


बैल, इमारतें, ईंटे, दरवाज़े, बाज़ार

उन्हें पचा गए।


मुझे लगता है

उस चटियल मैदान


के भीतर (जो पिता थे)

ज़मीन की दूसरी-तीसरी परतों में।

सरकता हुआ कोई

नम सोता भी था


जो मेहनत करते

पिता की देह के अलावा

कभी-कभी मेरी आँखों से भी

रिसने लगता था।

~ उदय प्रकाश


दीदी

आवा लगाने के लिए नदी के तीर पर

मज़दूर मिट्टी खोद रहे हैं।


उन्हीं में से किसी की एक छोटी-सी बिटिया

बार-बार घाट पर आवा-जाई कर रही है


कभी कटोरी उठाती, है कभी थाली

कितना घिसना और माँजना चला है!


दिन में बीसियों बार दौड़-दौड़कर आती है

पीतल का कँगना पीतल की थाली से लगाकर


ठन-ठन बजता है।

दिन-भर काम-धंधे में व्यस्त है!


उसका छोटा भाई है—

मुड़ा हुआ सिर, कीचड़ से लथ-पथ, नंगा-पुंगा,


पोषित पंछी की तरह पीछे आता है,

और बैठ जाता है दीदी की आज्ञा मानकर, धीरज धरकर


अचंचल भाव से नदी से लगे ऊँचे टीले पर

बच्ची वापिस लौटती है


भरा हुआ घड़ा लेकर

बायीं कोख में थाली दबाकर


दाहिने हाथ से बच्चे का हाथ पकड़कर।

काम के भार से झुकी हुई


माँ की प्रतिनिधि है यह अत्यंत छोटी दीदी।

~ रवींद्रनाथ टैगोर (अनुवाद : भवानीप्रसाद मिश्र)


ज़रूरत ढल गई रिश्ते में वर्ना

यहाँ कोई किसी का अपना कब है

~ अता आबिदी


हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते

वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते

~ गुलज़ार


दुश्मनी लाख सही ख़त्म न कीजे रिश्ता

दिल मिले, या न मिले, हाथ मिलाते रहिए

~ निदा फ़ाज़ली


नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम

बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम

~ जौन एलिया


ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं

तेरा होना भी नहीं और तिरा कहलाना भी

~ वसीम बरेलवी

 

कुछ रिश्ते टूटे टूटे से

कुछ साथी छूटे छूटे से

कुछ बिगड़ी बिगड़ी तस्वीरें

कुछ धुँदली धुँदली तहरीरें

कुछ आँसू छलके छलके से

कुछ मोती ढलके ढलके से

कुछ नक़्श ये हैराँ हैराँ से

कुछ अक्स ये लर्ज़ां लर्ज़ां से 

कुछ उजड़ी उजड़ी दुनिया में

कुछ भटकी भटकी आशाएँ

कुछ बिखरे बिखरे सपने हैं


ये ग़ैर नहीं, सब अपने हैं

मत रोको इन्हें, पास आने दो

ये मुझ से मिलने आए हैं

मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ

कुछ इतने धुंदले साए हैं

~ जाँ निसार अख़्तर (नज़्म : आख़िरी मुलाक़ात)


एक मुद्दत हुई लैला-ए-वतन से बिछड़े

अब भी रिसते हैं मगर ज़ख़्म पुराने मेरे

~ अहमद फ़राज़


प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है

नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है


जिस्म की बात नहीं थी उन के दिल तक जाना था

लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है


गाँठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या डोरी

लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है


हम ने इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल तो ढूँड लिया लेकिन

गहरे ज़ख़्मों को भरने में वक़्त तो लगता है

~ हस्तीमल हस्ती 


रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय।

टूटे से फिर न मिले, मिले गाँठ परिजाय॥

~  ख़ानज़दा मिर्ज़ा खान अब्दुल रहीम


ऐसी देनी देंन ज्यूँ, कित सीखे हो सैन

ज्यों ज्यों कर ऊंच्यो करो, त्यों त्यों निचे नैन

~ तुलसीदास 


"देनहार कोई और है, भेजत जो दिन रैन

लोग भरम हम पर करे, तासो निचे नैन"

~  ख़ानज़दा मिर्ज़ा खान अब्दुल रहीम


फूल खिलता है

महकता है

बिखर जाता है

तुम से वैसे तो नहीं कोई शिकायत

लेकिन

शाख़ हो सब्ज़ 

तो हस्सास फ़ज़ा होती है

हर कली ज़ख़्म की सूरत ही जुदा होती है

तुम ने

बेकार ही मौसम को सताया वर्ना

फूल जब खिल के महक जाता है

ख़ुद-ब-ख़ुद

शाख़ से गिर जाता है

~ निदा फ़ाज़ली


शाम से आँख में नमी सी है

आज फिर आप की कमी सी है

दफ़्न कर दो हमें कि साँस मिले

नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है

वक़्त रहता नहीं कहीं थमकर

इस की आदत भी आदमी सी है

कोई रिश्ता नहीं रहा फिर भी

एक तस्लीम लाज़मी सी है

~ गुलज़ार (मरासिम)


ज़िंदगी को गुज़ारने के लिए

वक़्त का ज़हर मारने के लिए

अपना ग़ुस्सा उतारने के लिए

फ़ोन पर शब गुज़ारने के लिए


दोस्त सचमुच बहुत ज़रूरी हैं


दिल के छालों को फोड़ने के लिए

बर्फ़ उदासी की तोड़ने के लिए

रुख़ हवाओं का मोड़ने के लिए

दिल के टुकड़ों को जोड़ने के लिए


दोस्त सचमुच बहुत ज़रूरी हैं


हम ने माना कि दर्द देते हैं

राह में साथ छोड़ देते हैं

आस की डोर तोड़ देते हैं

तार दिल के झिंझोड़ देते हैं

फिर भी मुझ जैसे आदमी के लिए

कूचा-ए-जाँ में रौशनी के लिए 

इब्न-ए-आदम की बेहतरी के लिए 


दोस्त सचमुच बहुत ज़रूरी है

~ शकील जमाली


क्यों 

हर रिश्ता नाज़ुक धागों, से है बाँधा जाता 

क्यों 

हर रिश्ते के टूटने का, डर है सताता 

क्यों नहीं 

रिश्तों को मज़बूत कड़ियों, से है जोड़ा जाता 

लेकिन 

रिश्ते क्या बँधकर, है जी पाते?


रिश्ते तो प्यार से है बनते 

प्यार से ही पनपते 

रिश्तों को सीमा में 

नाज़ुक धागों से न बंधने दो 

प्रेम के परवाज़ से 

रिश्तों को उड़ने दो 

~ अमोल दारव्हेकर