अब्र  

आए कुछ अब्र कुछ शराब आए 

इस के बा'द आए जो अज़ाब आए 


बाम-ए-मीना से माहताब उतरे

दस्त-ए-साक़ी में आफ़्ताब आए


हर रग-ए-ख़ूँ में फिर चराग़ाँ हो

सामने फिर वो बे-नक़ाब आए


उम्र के हर वरक़ पे दिल की नज़र

तेरी मेहर-ओ-वफ़ा के बाब आए


कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब

आज तुम याद बे-हिसाब आए


न गई तेरे ग़म की सरदारी

दिल में यूँ रोज़ इंक़लाब आए


जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम

जब भी हम ख़ानुमाँ-ख़राब आए


इस तरह अपनी ख़ामुशी गूँजी

गोया हर सम्त से जवाब आए


'फ़ैज़' थी राह सर-ब-सर मंज़िल

हम जहाँ पहुँचे कामयाब आए

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


जब भी ये दिल उदास होता है

जाने कौन आस-पास होता है


आँखें पहचानती हैं आँखों को

दर्द चेहरा-शनास होता है 


गो बरसती नहीं सदा आँखें

अब्र तो बारह-मास होता है


छाल पेड़ों की सख़्त है लेकिन

नीचे नाख़ुन के मास होता है


ज़ख़्म कहते हैं दिल का गहना है

दर्द दिल का लिबास होता है


डस ही लेता है सब को इश्क़ कभी

साँप मौक़ा-शनास होता है 


सिर्फ़ इतना करम किया कीजे

आप को जितना रास होता है

~ गुलज़ार


अब्र बरसे तो इनायत उस की

शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है

~ परवीन शाकिर


जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा

तो हम-साया काहे को सोता रहेगा


मैं वो रोने वाला जहाँ से चला हूँ

जिसे अब्र हर साल रोता रहेगा


मुझे काम रोने से अक्सर है नासेह

तू कब तक मिरे मुँह को धोता रहेगा


बस ऐ गिर्या आँखें तिरी क्या नहीं हैं

कहाँ तक जहाँ को डुबोता रहेगा


मिरे दिल ने वो नाला पैदा किया है

जरस के भी जो होश खोता रहेगा


तू यूँ गालियाँ ग़ैर को शौक़ से दे

हमें कुछ कहेगा तो होता रहेगा


बस ऐ 'मीर' मिज़्गाँ से पोंछ आँसुओं को

तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा

~ मीर तक़ी मीर


करोगे याद तो हर बात याद आएगी

गुज़रते वक़्त की हर मौज ठहर जाएगी


ये चाँद बीते ज़मानों का आइना होगा

भटकते अब्र में चेहरा कोई बना होगा


उदास रह है कोई दास्ताँ सुनाएगी

करोगे याद तो हर बात याद आएगी


बरसता भीगता मौसम धुआँ धुआँ होगा

पिघलती शम्अ' पे चेहरा कोई गुमाँ होगा


हथेलियों की हिना याद कुछ दिलाएगी

करोगे याद तो हर बात याद आएगी


गली के मोड़ पे सूना सा कोई दरवाज़ा

तरसती आँख में रस्ता किसी का देखेगा


निगाह दूर तलक जा के लौट आएगी

करोगे याद तो हर बात याद आएगी

~ बशर नवाज़ (फ़िल्म बाज़ार 1982)


तिरती है समीर-सागर पर

अस्थिर सुख पर दुःख की छाया-

जग के दग्ध हृदय पर

निर्दय विप्लव की प्लावित माया-

यह तेरी रण-तरी

भरी आकांक्षाओं से,

घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर

उर में पृथ्वी के, आशाओं से

नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,

ताक रहे है, ऐ विप्लव के बादल!

फिर-फिर!

बार-बार गर्जन

वर्षण है मूसलधार,

हृदय थाम लेता संसार,

सुन-सुन घोर वज्र हुँकार।

अशनि-पात से शायित उन्नत शत-शत वीर,

क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर,

गगन-स्पर्शी स्पर्द्धा-धीर।

हँसते है छोटे पौधे लघुभार-

शस्य अपार,

हिल-हिल

खिल-खिल,

हाथ मिलाते,

तुझे बुलाते,

विप्लव-रव से छोटे ही है शोभा पाते।

अट्टालिका नही है रे

आतंक-भवन,

सदा पंक पर ही होता

जल-विप्लव प्लावन,

क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से

सदा छलकता नीर,

रोग-शोक में भी हँसता है

शैशव का सुकुमार शरीर।

रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष,

अंगना-अंग से लिपटे भी

आतंक-अंक पर काँप रहे हैं

धनी, वज्र-गर्जन से, बादल!

त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे है।

जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर

तुझे बुलाता कृषक अधीर,

ऐ विप्लव के वीर!

चूस लिया है उसका सार,

हाड़ मात्र ही है आधार,

ऐ जीवन के पारावार !

~ सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"


सुरपति के हम हैं अनुचर ,

जगत्प्राण के भी सहचर ;

मेघदूत की सजल कल्पना ,

चातक के चिर जीवनधर;

मुग्ध शिखी के नृत्य मनोहर,

सुभग स्वाति के मुक्ताकर;

विहग वर्ग के गर्भ विधायक,

कृषक बालिका के जलधर !


भूमि गर्भ में छिप विहंग-से,

फैला कोमल, रोमिल पंख ,

हम असंख्य अस्फुट बीजों में,

सेते साँस, छुडा जड़ पंक !

विपुल कल्पना से त्रिभुवन की

विविध रूप धर भर नभ अंक,

हम फिर क्रीड़ा कौतुक करते,

छा अनंत उर में निःशंक !


कभी चौकड़ी भरते मृग-से

भू पर चरण नहीं धरते ,

मत्त मतगंज कभी झूमते,

सजग शशक नभ को चरते;

कभी कीश-से अनिल डाल में

नीरवता से मुँह भरते ,

बृहत गृद्ध-से विहग छदों को ,

बिखरते नभ,में तरते !


कभी अचानक भूतों का सा

प्रकटा विकट महा आकार

कड़क,कड़क जब हंसते हम सब ,

थर्रा उठता है संसार ;

फिर परियों के बच्चों से हम

सुभग सीप के पंख पसार,

समुद तैरते शुचि ज्योत्स्ना में,

पकड़ इंदु के कर सुकुमार !


अनिल विलोरित गगन सिंधु में

प्रलय बाढ़ से चारो ओर

उमड़-उमड़ हम लहराते हैं

बरसा उपल, तिमिर घनघोर;

बात बात में, तूल तोम सा

व्योम विटप से झटक ,झकोर

हमें उड़ा ले जाता जब द्रुत

दल बल युत घुस बातुल चोर !


व्योम विपिन में वसंत सा

खिलता नव पल्लवित प्रभात ,

बरते हम तब अनिल स्रोत में

गिर तमाल तम के से पात ;

उदयाचल से बाल हंस फिर

उड़ता अंबर में अवदात

फ़ैल स्वर्ण पंखों से हम भी,

करते द्रुत मारुत से बात !


पर्वत से लघु धूलि.धूलि से

पर्वत बन ,पल में साकार --

काल चक्र से चढ़ते गिरते,

पल में जलधर,फिर जलधार;

कभी हवा में महल बनाकर,

सेतु बाँधकर कभी अपार ,

हम विलीन हों जाते सहसा

विभव भूति ही से निस्सार !


हम सागर के धवल हास हैं

जल के धूम ,गगन की धूल ,

अनिल फेन उषा के पल्लव ,

वारि वसन,वसुधा के मूल ;

नभ में अवनि,अवनि में अंबर ,

सलिल भस्म,मारुत के फूल,

हम हीं जल में थल,थल में जल,

दिन के तम ,पावक के तूल !


व्योम बेलि,ताराओं में गति ,

चलते अचल, गगन के गान,

हम अपलक तारों की तंद्रा,

ज्योत्सना के हिम,शशि के यान;

पवन धेनु,रवि के पांशुल श्रम ,

सलिल अनल के विरल वितान !

व्योम पलक,जल खग ,बहते थल,

अंबुधि की कल्पना महान !


धूम-धुआँरे ,काजल कारे ,

हम हीं बिकरारे बादल ,

मदन राज के बीर बहादुर ,

पावस के उड़ते फणिधर !

चमक झमकमय मंत्र वशीकर

छहर घहरमय विष सीकर,

स्वर्ग सेतु-से इंद्रधनुषधर ,

कामरूप घनश्याम अमर !

~ सुमित्रानंदन पंत 


ओ पावस के पहले बादल,

उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक

मेरे मन-प्राणों पर बरसों।


यह आशा की लतिकाएँ थीं

जो बिखरीं आकुल-व्याकुल-सी,

यह स्वप्नों की कलिकाएँ थीं

जो खिलने से पहले झुलसीं,

यह मधुवन था, जो सुना-सा

मरुथल दिखलाई पड़ता है,

इन सुखे कूल-किनारों में

थी एक समय सरिता हुलसी;

आँसू की बूँदें चाट कहीं

अंतर की तृष्णा मिटती है;

ओ पावस के पहले बादल,

उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक

मेरे मन-प्राणों पर बरसों।


मेरे उच्छ्वास बने शीतल

तो जग में मलयानिल डोले,

मेरा अंतर लहराएँ तो

जगती अपना कल्मष धो ले,

सतरंगा इंद्रधनुष निकले

मेरे मन के धुँधले पट पर,

तो दुनिया सुख की, सुखमा की,

मंगल वेला की जय बोले;

सुख है तो औरों को छूकर

अपने से सुखमय कर देगा,

ओ वर्षा के हर्षित बादल,

उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक

मेरे अरमानों पर बरसो।

ओ पावस के पहले बादल,

उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक

मेरे मन-प्राणों पर बरसों।


सुख की घड़ियों के स्वागत में

छंदों पर छंद सजाता हूँ,

पर अपने दुख के दर्द भरे

गीतों पर कब पछताता हूँ,

जो औरों का आनंद बना

वह दुख मुझपर फिर-फिर आए,

रस में भीगे दुख के ऊपर

मैं सुख का स्वर्ग लुटाता हूँ;

कंठों से फूट न जो निकले

कवि को क्या उस दुख सें, सुख से;

ओ बारिश के बेख़ुद बादल,

उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक

मेरे स्वर-गानों पर बरसों।

ओ पावस के पहले बादल,

उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक

मेरे मन-प्राणों पर बरसों।

~  हरिवंशराय बच्चन 


कहाँ से आये बादल काले?

कजरारे मतवाले!

शूल भरा जग, धूल भरा नभ,

झुलसीं देख दिशायें निष्प्रभ,

सागर में क्या सो न सके यह

करुणा के रखवाले?

आँसू का तन, विद्युत् का मन,

प्राणों में वरदानों का प्रण,

धीर पदों से छोड़ चले घर,

दुख-पाथेय सँभाले!

लाँघ क्षितिज की अन्तिम दहली,

भेंट ज्वाल की बेला पहली,

जलते पथ को स्नेह पिला

पग पग पर दीपक वाले!

गर्जन में मधु-लय भर बोले,

झंझा पर निधियाँ धर डोले,

आँसू बन उतरे तृण-कण ने

मुस्कानों में पाले!

नामों में बाँधे सब सपने,

रूपों में भर स्पन्दन अपने

रंगों के ताने बाने में

बीते क्षण बुन डाले!

वह जड़ता हीरों से डाली,

यह भरती मोती से थाली,

नभ कहता नयनों में बस

रज कहती प्राण समा ले

~ महादेवी वर्मा


कहाँ गया वह श्यामल बादल।


जनक मिला था जिसको सागर,

सुधा सुधाकर मिले सहोदर,

चढा सोम के उच्चशिखर तक

वात सङ्ग चञ्चल। !

कहाँ गया वह श्यामल बादल।


इन्द्रधनुष परिधान श्याम तन,

किरणों के पहने आभूषण,

पलकों में अगणित सपने ले

विद्युत् के झलमल।

कहाँ गया वह श्यामल बादल।


तृषित धरा ने इसे पुकारा,

विकल दृष्ठि से इसे निहारा,

उतर पडा वह भू पर लेकर

उर में करुणा नयनों में जल।

कहाँ गया वह श्यामल बादल

~ महादेवी वर्मा


मधुर ! बादल, और बादल, और बादल आ रहे हैं

और संदेशा तुम्हारा बह उठा है, ला रहे हैं।।


गरज में पुस्र्षार्थ उठता, बरस में कस्र्णा उतरती 

उग उठी हरीतिमा क्षण-क्षण नया श्रृङ्गर करती

बूँद-बूँद मचल उठी हैं, कृषक-बाल लुभा रहे हैं।।

नेह! संदेशा तुम्हारा बह उठा है, ला रहे हैं।।


तड़ित की तह में समायी मूर्ति दृग झपका उठी है

तार-तार कि धार तेरी, बोल जी के गा उठी हैं

पंथियों से, पंछियों से नीड़ के स्र्ख जा रहे हैं

मधुर! बादल, और बादल, और बादल आ रहे हैं।।


झाड़ियों का झूमना, तस्र्-वल्लरी का लहलहाना

द्रवित मिलने के इशारे, सजल छुपने का बहाना।

तुम नहीं आये, न आवो, छवि तुम्हारी ला रहे हैं।।

मधुर! बादल, और बादल, और बादल छा रहे हैं,


और संदेशा तुम्हारा बह उठा है, ला रहे हैं।।

~ माखनलाल चतुर्वेदी


अमल धवल गिरि के शिखरों पर,

बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे

उसके शीतल तुहिन कणों को,

मानसरोवर के उन स्वर्णिम

कमलों पर गिरते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।


तुंग हिमालय के कंधों पर

छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,

उनके श्यामल नील सलिल में

समतल देशों से आ-आकर

पावस की ऊमस से आकुल

तिक्त-मधुर विष-तंतु खोजते

हंसों को तिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।


ऋतु वसंत का सुप्रभात था

मंद-मंद था अनिल बह रहा

बालारुण की मृदु किरणें थीं

अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे

एक-दूसरे से विरहित हो

अलग-बगल रहकर ही जिनको

सारी रात बितानी होगी,

निशाकाल से चिर-अभिशापित

बेबस उस चकवा-चकई का

बंद हुआ क्रन्दन, फिर उनमें

उस महान सरवर के तीरे

शैवालों की हरी दरी पर

प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।


दुर्गम बर्फानी घाटी में

शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर

अलख नाभि से

न्तु लगा क्या

मेघदूत का पता कहीं पर,

कौन बताए वह छायामय

बरस पड़ा होगा न यहीं पर,

जाने दो, वह कवि-कल्पित था,

मैंने तो भीषण जाड़ों में

नभ-चुम्बी कैलाश शीर्ष पर,

महामेघ को झंझानिल से

गरज-गरज भिड़ते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।


शत-शत निर्झर-निर्झरणी-कल

मुखरित देवदारु कानन में,

शोणित-धवल-भोजपत्रों से

छायी हुई कुटी के भीतर,

रंग-बिरंगे और सुगंधित

फूलों से कुन्तल को साजे,

इंद्रनील की माला डाले

शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,

कानों में कुवलय लटकाए,

शतदल लाल कमल वेणी में,

रजत-रचित मणि-खचित कलामय

पान पात्र द्राक्षासव-पूरित

रखे सामने अपने-अपने

लोहित चंदन की त्रिपदी पर,

नरम निदाग बाल-कस्तूरी

मृगछालों पर पलथी मारे

मदिरारुण आखों वाले उन

उन्मद किन्नर-किन्नरियों की

मृदुल मनोरम अँगुलियों को

वंशी पर फिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

~ नागार्जुन ('युगधारा, 1938)


अश्क अपना कि तुम्हारा नहीं देखा जाता

अब्र की ज़द में सितारा नहीं देखा जाता

~ मोहसिन नक़वी


धूप बहुत है मौसम जल-थल भेजो न

बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न


मोल्सरी की शाख़ों पर भी दिये जलें

शाख़ों का केसरया आँचल भेजो न


नन्ही मुन्नी सब चेहकारें कहाँ गईं

मोरों के पैरों की पायल भेजो न


बस्ती बस्ती दहशत किसने बो दी है

गलियों बाज़ारों की हलचल भेजो न


सारे मौसम एक उमस के आदी हैं

छाँव की ख़ुश्बू, धूप का संदल भेजो न


मैं बस्ती में आख़िर किस से बात करूँ

मेरे जैसा कोई पागल भेजो न

~ राहत इन्दौरी


ग़म हर इक आँख को छलकाए ज़रूरी तो नहीं

अब्र उठे और बरस जाए ज़रूरी तो नहीं

~ फ़ना निज़ामी कानपुरी

 

बुज़-दिली होगी चराग़ों को दिखाना आँखें

अब्र छट जाए तो सूरज से मिलाना आँखें

~ शकील बदायूनी


ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे

तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है

~ शकेब जलाली


सुनता हूँ, मैंने भी देखा,

काले बादल में रहती चाँदी की रेखा!


काले बादल जाति द्वेष के,

काले बादल विश्‍व क्‍लेश के,

काले बादल उठते पथ पर

नव स्‍वतंत्रता के प्रवेश के!

सुनता आया हूँ, है देखा,

काले बादल में हँसती चाँदी की रेखा!


आज दिशा हैं घोर अँधेरी

नभ में गरज रही रण भेरी,

चमक रही चपला क्षण-क्षण पर

झनक रही झिल्‍ली झन-झन कर!

नाच-नाच आँगन में गाते केकी-केका

काले बादल में लहरी चाँदी की रेखा।


काले बादल, काले बादल,

मन भय से हो उठता चंचल!

कौन हृदय में कहता पलपल

मृत्‍यु आ रही साजे दलबल!

आग लग रही, घात चल रहे, विधि का लेखा!

काले बादल में छिपती चाँदी की रेखा!


मुझे मृत्‍यु की भीति नहीं है,

पर अनीति से प्रीति नहीं है,

यह मनुजोचित रीति नहीं है,

जन में प्रीति प्रतीति नहीं है!


देश जातियों का कब होगा,

नव मानवता में रे एका,

काले बादल में कल की,

सोने की रेखा!

~ सुमित्रानंदन पंत (काले बादल)

  

अब्र में चाँद गर न देखा हो

रुख़ पे ज़ुल्फ़ों को डाल कर देखो

~ जोश लखनवी


चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र,

अब वो कपड़े बदल रही होगी।

 ~ जौन एलिया 


बरसात का मज़ा तिरे गेसू दिखा गए

अक्स आसमान पर जो पड़ा अब्र छा गए

~ लाला माधव राम जौहर


दर्द थम जाएगा ग़म न कर, ग़म न कर

यार लौट आएँगे, दिल ठहर जाएगा, ग़म न कर, ग़म न कर

ज़ख़्म भर जाएगा

ग़म न कर, ग़म न कर

दिन निकल आएगा

ग़म न कर, ग़म न कर

अब्र खुल जाएगा, रात ढल जाएगी

ग़म न कर, ग़म न कर

रुत बदल जाएगी

ग़म न कर, ग़म न कर

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़