यादें
Memory is the diary that we all carry about with us.
~ Oscar Wilde
Memories warm you up from the inside. But they also tear you apart.”
~ Haruki Murakami
स्मृति
शब्द साथ ले गये, अर्थ जिनसे लिपटे थे।
छोड़ गये हो छन्द, गूँजता है वह ऐसे,
मानो, कोई वायु कुंज में तड़प-तड़प कर
बहती हो, पर, नहीं पुष्प को छू पाती हो।
~ रामधारी सिंह "दिनकर"
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
~ बशीर बद्र
भले दिनों की बात है
भली सी एक शक्ल थी
न ये कि हुस्न-ए-ताम हो
न देखने में आम सी
न ये कि वो चले तो, कहकशाँ सी रहगुज़र लगे
मगर वो साथ हो, तो फिर भला भला सफ़र लगे
कोई भी रुत हो, उस की छब
फ़ज़ा का रंग-रूप थी
वो गर्मियों की छाँव थी
वो सर्दियों की धूप थी
न मुद्दतों जुदा रहे
न साथ सुब्ह-ओ-शाम हो
न रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद
न ये कि इज़्न-ए-आम हो
न ऐसी ख़ुश-लिबासियाँ
कि सादगी गिला करे
न इतनी बेतकल्लुफ़ी
कि आइना हया करे
न इख़्तिलात में वो रम
कि बद-मज़ा हों ख़्वाहिशें
न इस क़दर सुपुर्दगी
कि ज़च करें नवाज़िशें
न आशिक़ी जुनून की
कि ज़िंदगी अज़ाब हो
न इस क़दर कठोर-पन
कि दोस्ती ख़राब हो
कभी तो बात भी ख़फ़ी
कभी सुकूत भी सुख़न
कभी तो किश्त-ए-ज़ाफ़राँ
कभी उदासियों का बन
सुना है एक उम्र है
मुआमलात-ए-दिल की भी
विसाल-ए-जाँ-फ़ज़ा तो क्या
फ़िराक़-ए-जाँ-गुसिल की भी
सो एक रोज़ क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गई
मैं इश्क़ को अमर कहूँ
वो मेरी ज़िद से चिड़ गई
मैं इश्क़ का असीर था
वो इश्क़ को क़फ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को
वो बद-तर-अज़-हवस कहे
शजर हजर नहीं कि हम
हमेशा पा-ब-गिल रहें
न ढोर हैं कि रस्सियाँ
गले में मुस्तक़िल रहें
मोहब्बतों की वुसअतें
हमारे दस्त-ओ-पा में हैं
बस एक दर से निस्बतें
सगान-ए-बा-वफ़ा में हैं
मैं कोई पेंटिंग नहीं
कि इक फ़्रेम में रहूँ
वही जो मन का मीत हो
उसी के प्रेम में रहूँ
तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं उस मिज़ाज की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
ये बात आज की नहीं
न उस को मुझ पे मान था
न मुझ को उस पे ज़ोम ही
जो अहद ही कोई न हो
तो क्या ग़म-ए-शिकस्तगी
सो अपना अपना रास्ता
हँसी-ख़ुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी
मैं अपनी राह चल दिया
भली सी एक शक्ल थी
भली सी उस की दोस्ती
अब उस की याद रात दिन
नहीं, मगर कभी कभी
~ अहमद फ़राज़
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
~ फ़िराक़ गोरखपुरी
तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं
~ फ़िराक़ गोरखपुरी
हमेशा देर कर देता हूँ मैं हर काम करने में
ज़रूरी बात कहनी हो, कोई वा'दा निभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो, उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
मदद करनी हो उस की, यार की ढारस बंधाना हो
बहुत देरीना रस्तों पर, किसी से मिलने जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
बदलते मौसमों की सैर में दिल को लगाना हो
किसी को याद रखना हो किसी को भूल जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
किसी को मौत से पहले किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीक़त और थी कुछ, उस को जा के ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं हर काम करने में.....
~ मुनीर नियाज़ी
दिल आबाद कहाँ रह पाए उसकी याद भुला देने से
कमरा वीराँ हो जाता है इक तस्वीर हटा देने से
बेताबी कुछ और बढ़ा दी एक झलक दिखला देने से
प्यास बुझे कैसे सहरा की दो बूँदें बरसा देने से
हँसती आँखें लहू रुलाएँ खिलते गुल चेहरे मुरझाएँ
क्या पाएँ बे-महर हवाएँ दिल धागे उलझा देने से
हम कि जिन्हें तारे बोने थे हम कि जिन्हें सूरज थे उगाने
आस लिए बैठे हैं सहर की जलते दिए बुझा देने से
आली शेर हो या अफ़्साना या चाहत का ताना बाना
लुत्फ़ अधूरा रह जाता है पूरी बात बता देने से
~ जलील ’आली’
दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तिरी याद थी अब याद आया
आज मुश्किल था सँभलना ऐ दोस्त
तू मुसीबत में अजब याद आया
दिन गुज़ारा था बड़ी मुश्किल से
फिर तिरा वादा-ए-शब याद आया
तेरा भूला हुआ पैमान-ए-वफ़ा
मर रहेंगे अगर अब याद आया
फिर कई लोग नज़र से गुज़रे
फिर कोई शहर-ए-तरब याद आया
हाल-ए-दिल हम भी सुनाते लेकिन
जब वो रुख़्सत हुआ तब याद आया
बैठ कर साया-ए-गुल में 'नासिर'
हम बहुत रोए वो जब याद आया
~ नासिर काज़मी
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया
दम लिया था न क़यामत ने हनोज़
फिर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया
सादगी हाये तमन्ना यानी
फिर वो नैरंग-ए-नज़र याद आया
उज़्र-ए-वामाँदगी अए हस्रत-ए-दिल
नाला करता था जिगर याद आया
ज़िन्दगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यों तेरा राहगुज़र याद आया
क्या ही रिज़वान से लड़ाई होगी
घर तेरा ख़ुल्द में गर याद आया
आह वो जुर्रत-ए-फ़रियाद कहाँ
दिल से तंग आके जिगर याद आया
फिर तेरे कूचे को जाता है ख़्याल
दिल-ए-ग़ुमगश्ता मगर याद आया
कोई वीरानी-सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया
मैंने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद'
संग उठाया था के सर याद आया
~ ग़ालिब
दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जायेंगे ऐसा लगता है
कितने दिनों के प्यासे होंगे यारों सोचो तो
शबनम का क़तरा भी जिन को दरिया लगता है
आँखों को भी ले डूबा ये दिल का पागलपन
आते जाते जो मिलता है तुमसा लगता है
इस बस्ती में कौन हमारे आँसू पोंछेगा
जो मिलता है उसका दामन भीगा लगता है
दुनिया भर की यादें हम से मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
किस को पत्थर मारूं 'क़ैसर' कौन पराया है
शीश-महल में इक इक चेहरा अपना लगता है
~ क़ैसर-उल जाफ़री (फिल्म: एक ही मक़सद 1988)
माँ, तोर मुख मने पोरे ना।
शुधु जोखुन खेलते जाई,
अकस्मात, एकटा सुर कानेर भीतरे बाजे,
मने होए, खेलेर माझखाने
तोर कोनो कथा मिले जाए,
मने होए, झूलोने धाक देआर समोए
तुई गान गेय छिली—
तुई जे चले गेछिस,
जाोआर समोए गानटा फेले गेछिस!
माँ, तोर मुख मने पोरे ना।
शुधु जोखुन आश्विन माशे प्रातःकाले
शीर बिंदु झरा हेमंतेर बने
फुलर गंधो बये आशे,
तोखुन जाना ना क्यानो
तोमार कथा मने पोरे।
मने होए, तोई फुलेर टोकरी निये आशीश,
ताइ पूजार गंधो
तोमार गंधो होए आशे।
माँ, तोर मुख मने पोरे ना।
शुधु जोखुन बोशी शुयनघरेर कोने,
जानलार फाके दीए ताकाई
दूर नील आकाशेर दिके—
मने होए, तुई आमार दिके ताकाच्छिस
तोमार कोले आमाके निये ताकीये छिली—
ओई चोखेर चाऊनी
आकाशेर मोध्धे छोरीए रोयेछे!
~ रवींद्रनाथ ठाकुर
याद आना
माँ, मुझे याद नहीं आती।
केवल कभी खेलने जाने पर अचानक अकारण
एक जाने कौन-सा सुर गुन-गुनकर मेरे कानों में ध्वनित होता है,
जैसे मेरे खेल में माँ के शब्द मिल जाते हैं
लगता है जैसे माँ मेरे झूले को ठेल-ठेलकर
गान गाया करती थी—
माँ चली गई है, जाते-जाते (जैसे) वह गान छोड़ गई है!
माँ मुझे याद नहीं आती।
केवल जब आश्विन के महीने में प्रातःकाल हरसिंगार के वन में
ओस-कण से भीगी हुई हवा फूलों की गंध को
वहन करके ले आती
तब जाने क्यों माँ की बात मेरे मन में बहती रहती है।
कभी माँ शायद उन फूलों की डलिया लेकर आया करती—
इसीलिए पूजा की सुगंधि माँ की सुगंधि होकर आती!
माँ मुझे याद यहीं आती।
केवल जब बैठता हूँ शयन-गृह के कोने में,
खिड़की से ताकता हूँ दूर नील आकाश की ओर—
लगता है, माँ मेरी ओर देख रही है निर्निमेष
गोद में लेकर कभी देखती होगी मुझे—
वही दृष्टि रख गई है सारे आसमान में व्याप्त करके!
~ रवींद्रनाथ टैगोर
अनुवाद : हजारीप्रसाद द्विवेदी
आज फिर दिल ने कहा आओ भुला दें यादें
ज़िंदगी बीत गई और वही यादें-यादें
जिस तरह आज ही बिछड़े हों बिछड़ने वाले
जैसे इक उम्र के दुःख याद दिला दें यादें
काश मुमकिन हो कि इक काग़ज़ी कश्ती की तरह
ख़ुदफरामोशी के दरिया में बहा दें यादें
वो भी रुत आए कि ऐ ज़ूद-फ़रामोश मेरे
फूल पत्ते तेरी यादों में बिछा दें यादें
जैसे चाहत भी कोई जुर्म हो, और जुर्म भी वो
जिसकी पादाश में ताउम्र सज़ा दें यादें
भूल जाना भी तो इक तरह की नेअमत है ‘फ़राज़’
वरना इंसान को पागल न बना दें यादें
~ अहमद फ़राज़