उम्मीद
कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग,
हम को जीने की भी उम्मीद नहीं।
~ ग़ालिब
मुनहसिर मरने पे हो जिस की उम्मीद
ना-उमीदी उस की देखा चाहिए।
~ ग़ालिब
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअ'य्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीअत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
क्यूँ न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़-ए-दिल गर नज़र नहीं आता
बू भी ऐ चारा-गर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
का'बा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती
~ मिर्ज़ा ग़ालिब
तेरे आने की क्या उमीद मगर
कैसे कह दूँ कि इंतिज़ार नहीं।
~ फ़िराक़ गोरखपुरी
न जाने किस लिए उम्मीदवार बैठा हूँ
इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं।
~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
वा'दा करते नहीं ये कहते हैं
तुझ को उम्मीदवार कौन करे।
~ दाग़ देहलवी
'दाग़' की शक्ल देख कर बोले
ऐसी सूरत को प्यार कौन करे
~ दाग़ देहलवी
ज़िंदगी जैसी तवक़्क़ो' थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की ता'मीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है
अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है
आज भी है तिरी दूरी, ही उदासी का सबब
ये अलग बात, कि पहली सी नहीं, कुछ कम है
~ शहरयार
तिरी उमीद तिरा इंतिज़ार जब से है
न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है।
~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हाथ तो काट दिए कूज़ा-गरों के हम ने
मो'जिज़े की वही उम्मीद मगर चाक से है।
~ परवीन शाकिर
सभी दुखों की एक महौषधि धीरज है,
सभी आपदाओं की एक तरी (nav) आशा।
आईये पूरी कविता सुन लेते हैं - कविता का नाम है “आशा”
सारी आशाएँ न पूर्ण यदि होती हों,
तब भी अंचल छोड़ नहीं आशाओं के।
मर गया होता कभी का
आपदाओं की कठिनतम मार से,
यदि नहीं आशा श्रवण में
नित्य यह संदेश देती प्यार से--
"घूँट यह पी लो कि संकट जा रहा है।
आज से अच्छा दिवस कल आ रहा है"।
सभी दुखों की एक महौषधि धीरज है,
सभी आपदाओं की एक तरी आशा।
~ रामधारी सिंह "दिनकर"
यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है
चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिन्ह जगमग से
शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही;
और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेप है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
~ रामधारी सिंह "दिनकर”
मूक हुआ जो शिशिर-निशा में
मेरे जीवन का संगीत,
मधु-प्रभात में भर देगा वह
अन्तहीन लय कण कण में।
वे मधु दिन जिनकी स्मृतियों की
धुँधली रेखायें खोईं,
चमक उठेंगे इन्द्रधनुष से
मेरे विस्मृति के घन में!
झंझा की पहली नीरवता-
सी नीरव मेरी साधें,
भर देंगी उन्माद प्रलय का
मानस की लघु कम्पन में!
सोते जो असंख्य बुदबुद् से
बेसुध सुख मेरे सुकुमार;
फूट पड़ेंगे दुख सागर की
सिहरी धीमी स्पन्दन में!
मूक हुआ जो शिशिर-निशा में
मेरे जीवन का संगीत,
मधु-प्रभात में भर देगा वह
अन्तहीन लय कण कण में
~ महादेवी वर्मा
(वे मधुदिन जिनकी स्मृतियों की)
बीती नहीं यद्यपि अभी तक है निराशा की निशा—
है किंतु आशा भी कि होगी दीप्त फिर प्राची दिशा।
महिमा तुम्हारी ही जगत में अन्य आशे! धन्य है,
देखा नहीं कोई कहीं अवलंब तुमसा अन्य है॥
आशे, तुम्हारे ही भरोसे जी रहे हैं हम सभी,
सब कुछ गया पर हाय रे! तुमको न छोड़ेंगे कभी।
आशे, तुम्हारे ही सहारे टिक रही है यह मही,
धोखा न दीजो अंत में, बिनती हमारी है यही॥
यद्यपि सफलता की अभी तक सरसता चखी नहीं,
हम किंतु जान रहे कि वह श्रम के बिना रखी नहीं।
यद्यपि भयंकर भाव से छाई हुई है दीनता—
कुछ-कुछ समझने हम लगे हैं किंतु अपनी हीनता॥
यद्यपि अभी तक स्वार्थ का साम्राज्य हम पर है बना—
पर दीखते हैं साहसी भी और कुछ उन्नतमना।
बन कर स्वयं सेवक सभी के जो उचित हित कर रहे,
होकर निछावर देश पर जो जाति पर हैं मर रहे॥
~ मैथिलीशरण गुप्त
(भारत-भारती / भविष्यत् खंड)
ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीक़ा भी निकालो यारो
दर्द-ए-दिल वक़्त को पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस कबूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो
लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सय्याद को महफ़िल में बुला लो यारो
आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक़ से वो ख़त तो निकालो यारो
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो यारो
लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुम ने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो
~ दुष्यन्त कुमार
वो सुब्ह कभी तो आएगी
इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नग़्मे गाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
जिस सुब्ह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर कर जीते हैं
जिस सुब्ह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूकी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इंसानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
इंसानों की इज़्ज़त जब झूटे सिक्कों में न तौली जाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जाएगा
चाहत को न कुचला जाएगा ग़ैरत को न बेचा जाएगा
अपने काले करतूतों पर जब ये दुनिया शरमाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूक के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारा-दारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फाँकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीक न माँगेगा
हक़ माँगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
फ़ाक़ों की चिताओं पर जिस दिन इंसाँ न जलाए जाएँगे
सीनों के दहकते दोज़ख़ में अरमाँ न जलाए जाएँगे
ये नरक से भी गंदी दुनिया जब स्वर्ग बनाई जाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी
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वो सुब्ह हमीं से आएगी
जब धरती करवट बदलेगी जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे
जब पाप घरौंदे फूटेंगे जब ज़ुल्म के बंधन टूटेंगे
उस सुब्ह को हम ही लाएँगे वो सुब्ह हमीं से आएगी
वो सुब्ह हमीं से आएगी
मनहूस समाजी ढाँचों में जब ज़ुल्म न पाले जाएँगे
जब हाथ न काटे जाएँगे जब सर न उछाले जाएँगे
जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी
वो सुब्ह हमीं से आएगी
संसार के सारे मेहनत-कश खेतों से मिलों से निकलेंगे
बे-घर बे-दर बे-बस इंसाँ तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अम्न और ख़ुश-हाली के फूलों से सजाई जाएगी
वो सुब्ह हमीं से आएगी
~ साहिर लुधियानवी
नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से
ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बहुत ज़रख़ेज़ है साक़ी।
~ अल्लामा इक़बाल
तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं
इसी रोज़ ओ शब में उलझ कर न रह जा
कि तेरे ज़मान ओ मकाँ और भी हैं
गए दिन कि तन्हा था मैं अंजुमन में
यहाँ अब मिरे राज़-दाँ और भी हैं
~ अल्लामा इक़बाल
तिरी उमीद तिरा इंतिज़ार जब से है
न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है।
किसी का दर्द हो, करते हैं तेरे नाम रक़म
गिला है जो भी किसी से, तिरे सबब से है
हुआ है जब से, दिल-ए-ना-सुबूर बे-क़ाबू
कलाम तुझ से नज़र को, बड़े अदब से है
अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले
तरह तरह की तलब, तेरे रंग-ए-लब से है
कहाँ गए शब-ए-फ़ुर्क़त के जागने वाले
सितारा-ए-सहरी हम-कलाम कब से है
~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले
अपने पे भरोसा है तो इक दाव लगा ले
डरता है ज़माने की निगाहों से भला क्यों
इंसाफ़ तिरे साथ है इल्ज़ाम उठा ले
क्या ख़ाक वो जीना है जो अपने ही लिए हो
ख़ुद मिट के किसी और को मिटने से बचा ले
टूटे हुए पतवार हैं कश्ती के तो हम क्या
हारी हुई बाहों को ही पतवार बना दे
~ साहिर लुधियानवी
“Hope” is the thing with feathers -
That perches in the soul -
And sings the tune without the words -
And never stops - at all -
And sweetest - in the Gale - is heard -
And sore must be the storm -
That could abash the little Bird
That kept so many warm -
I’ve heard it in the chillest land -
And on the strangest Sea -
Yet - never - in Extremity,
It asked a crumb - of me.
~ Emily Dickinson
(“Hope” is the thing with feathers)
Faith is the bird that feels the light when the dawn is still dark.
~ Rabindranath Tagore
आशाएं, आशाएं, आशाएं..
आशाएं, आशाएं, आशाएं..
कुछ पाने की हो आस आस
कोई अरमां हो जो ख़ास ख़ास
आशाएं, आशाएं, आशाएं..
हर कोशिश में हो वार वार
करे दरियाओं को आर पार
आशाएं, आशाएं, आशाएं..
तूफानों को चीर के, मंजिलों को छीन ले
आशाएँ खिले दिल की, उम्मीदें हँसे दिल की
अब मुश्किल, नहीं कुछ भी, नहीं कुछ भी
उड़ जाए लेके ख़ुशी, अपने संग तुझको वहाँ
जन्नत से मुलाक़ात हो, पूरी हो तेरी हर दुआ
आशाएँ खिले दिल की, उम्मीदें हँसे दिल की
अब मुश्किल, नहीं कुछ भी, नहीं कुछ भी
गुज़रे ऐसी हर रात रात, हो ख्वाहिशों से बात बात
आशाएं, आशाएं, आशाएं..
ले कर सूरज से आग आग, गाये जा अपना राग राग
आशाएं, आशाएं, आशाएं..
कुछ ऐसा करके दिखा, खुद खुश हो जाए खुदा
आशाएँ खिले दिल की, उम्मीदें हँसे दिल की
अब मुश्किल, नहीं कुछ भी, नहीं कुछ भी
आशाएँ खिले दिल की, उम्मीदें हँसे दिल की
अब मुश्किल, नहीं कुछ भी, नहीं कुछ भी..
~ इरफ़ान सिद्दीकी
(फ़िल्म : इक़बाल )