प्रकृति 

ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम

आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का

~ मीर तक़ी मीर 


सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं 

अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है 

जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद 

फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है 

~ मिर्ज़ा ग़ालिब


कुदरत की इस पवित्रता को तुम निहार लो

इनके गुणों को अपने मन में तुम उतार लो

चमका दो आज लालिमा

चमका दो आज लालिमा अपने ललाट की

कण कण से झांकती तुम्हें छबी विराट की

अपनी तो आँख एक है,  इसकी हज़ार है

ये कौन चित्रकार है ये कौन चित्रकार

~ भरत व्यास (“बूंद जो बन गई मोती”)


दफ़्तर-ए-हुस्न पे मोहर-ए-यद-ए-क़ुदरत समझो 

फूल का ख़ाक के तोदे से नुमायाँ होना

~ चकबस्त ब्रिज नारायण


सुनहरी धूप की कलियाँ खिलाती

घनी शाखों में चिड़ियों को जगाती

हवाओं के दुपट्टे को उड़ाती

ज़रा-सा चाँद माथे पर उगा के

रसीले नैन कागज से सजाके

चमेली की कली बालों में टाँके

सड़क पर नन्हे-नन्हे पाँव धरती

मज़ा ले-ले के बिस्कुट को कुतरती

सहर मक़तब (स्कूल/पाठशाला) में पढ़ने जा रही है

धुँदलकों से झगड़ने जा रही है

~ निदा फ़ाज़ली


नहीं है मेरे मुक़द्दर में रोशनी न सही 

ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे

~ बशीर बद्र


ऐ दोपहर की धूप बता क्या जवाब दूँ 

दीवार पूछती है कि साया किधर गया

~ उम्मीद फ़ाज़ली


दिवस का अवसान समीप था ।

गगन था कुछ लोहित हो चला ।

तरु शिखा पर थी अब राजती ।

कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा ।।१।।

~ अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (“प्रिय प्रवास”) 


सुब्ह होती है शाम होती है 

उम्र यूँ ही तमाम होती है

~ मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम


नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है 

ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे

~ शकील बदायूनी


कितनी जल्दी मैली करता है पोशाकें रोज़ फ़लक 

सुब्ह ही रात उतारी थी और शाम को शब पहनाई भी

~ गुलज़ार 


कहाँ गया वह श्यामल बादल!

कहाँ गया वह श्यामल बादल।

जनक मिला था जिसको सागर,

सुधा सुधाकर मिले सहोदर,

चढा सोम के उच्चशिखर तक

वात सङ्ग चञ्चल। !

कहाँ गया वह श्यामल बादल।

इन्द्रधनुष परिधान श्याम तन,

किरणों के पहने आभूषण,

पलकों में अगणित सपने ले

विद्युत् के झलमल।

कहाँ गया वह श्यामल बादल।

तृषित धरा ने इसे पुकारा,

विकल दृष्ठि से इसे निहारा,

उतर पडा वह भू पर लेकर

उर में करुणा नयनों में जल।

कहाँ गया वह श्यामल बादल

~ महादेवी वर्मा 


पर्वत की अभिलाषा

तू चाहे मुझको हरि, सोने का मढ़ा सुमेरु बनाना मत,

तू चाहे मेरी गोद खोद कर मणि-माणिक प्रकटाना मत,

तू मिट जाने तक भी मुझमें से ज्वालाएँ बरसाना मत,

लावण्य-लाड़िली वन-देवी का लीला क्षेत्र बनाना मत,

जगती-तल का मल धोने को

भू हरी-हरी कर देने को

गंगा-जमुनाएँ बहा सकूँ

यह देना, देर लगाना मत।

~ माखनलाल चतुर्वेदी


चाँद मद्धम है आसमाँ चुप है 

नींद की गोद में जहाँ चुप है 

दूर वादी में दूधिया बादल 

झुक के पर्बत को प्यार करते हैं 

दिल में नाकाम हसरतें ले कर 

हम तिरा इंतिज़ार करते हैं 

इन बहारों के साए में आ जा 

फिर मोहब्बत जवाँ रहे न रहे 

ज़िंदगी तेरे ना-मुरादों पर 

कल तलक मेहरबाँ रहे न रहे! 

रोज़ की तरह आज भी तारे 

सुब्ह की गर्द में न खो जाएँ 

आ तिरे ग़म में जागती आँखें 

कम से कम एक रात सो जाएँ 

चाँद मद्धम है आसमां चुप है 

नींद की गोद में जहां चुप है

~ साहिर लुधियानवी



पिछली बार भी आया था

तो इसी पहाड़ के नीचे खड़ा था

मुझ से कहा था...

तुम लोगो के कद क्यों छोटे रह जाते है ?

आओ हाथ पकड़ लो मेरा

पसलियों पे पांव रखो ऊपर आ जाओ

आओ ठीक से चेहरा तो देखूं तुम्हारा,कैसे लगते हो।

जैसे अलग अलग चींटियों को तुम पहचान नही सकते,

वैसे ही मुझको तुम सब एक से लगते हो।

बस एक ही फर्क है,

मेरी कोई चींटी बदन पे चढ़ जाये तो

चुटकी से पकड़ कर मार दिया करते हो तुम....

मैं ऐसा नहीं करता ....

~ गुलज़ार 


मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,

सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,

रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी

और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा!

पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,

बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!-

सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!

मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक

बाल-कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर

मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,

ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!


यह धरती कितना देती है! धरती माता

कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!

नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,-

बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!


रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।

इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;

इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,

इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,-

जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें

मानवता की, - जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-

हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।

~ सुमित्रानंदन पंत


वो सुब्ह कभी तो आएगी 

इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा 

जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा 

जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नग़्मे गाएगी 


वो सुब्ह हमीं से आएगी 

संसार के सारे मेहनत-कश खेतों से मिलों से निकलेंगे 

बे-घर बे-दर बे-बस इंसाँ तारीक बिलों से निकलेंगे 

दुनिया अम्न और ख़ुश-हाली के फूलों से सजाई जाएगी 

वो सुब्ह हमीं से आएगी

~ साहिर लुधियानवी