फ़िराक 


बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता

जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता


सब कुछ तो है क्या ढूँढ़ती रहती हैं निगाहें

क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता


वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में

जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता


मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा

जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता


वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है

वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता

~ निदा फ़ाज़ली


और तो सब कुछ ठीक है लेकिन कभी-कभी यूँ ही

चलता-फिरता शहर अचानक तन्हा लगता है

~ निदा फ़ाज़ली


कौन कहे ? यह प्रेम ह्रदय की बहुत बड़ी उलझन है.

जो अलभ्य, जो दूर,उसी को अधिक चाहता मन है.


कौन है अंकुश, इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ.

पर, सरोवर के किनारे कंठ में जो जल रही है,

उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ.

आग है कोई, नहीं जो शांत होती;

और खुलकर खेलने से भी निरंतर भागती है.

~ रामधारी सिंह दिनकर (उर्वशी)


बे-क़रारी सी बे-क़रारी है 

वस्ल है और फ़िराक़ तारी है 

जो गुज़ारी न जा सकी हम से 

हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है 

~ जौन एलिया 

 

ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया

जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया


यूँ तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती है 

आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया 


कभी तक़दीर का मातम कभी दुनिया का गिला 

मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया 


मुझ पे ही ख़त्म हुआ सिलसिला-ए-नौहागरी 

इस क़दर गर्दिश-ए-अय्याम पे रोना आया 


जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का 'शकील' 

मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना

~ शकील बदायूनी


चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है

हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

~ हसरत मोहानी (निकाह फिल्म )


वो जो हममें तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो

वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो

~ मोमिन ख़ाँ मोमिन


तुम मेरे पास होते हो गोया

जब कोई दूसरा नहीं होता

~ मोमिन ख़ाँ मोमिन


चाहता हूँ कि भूल जाऊँ तुम्हें 

और ये सब दरीचा-हा-ए-ख़याल 

जो तुम्हारी ही सम्त खुलते हैं 

बंद कर दूँ कुछ इस तरह कि यहाँ 

याद की इक किरन भी आ न सके 

चाहता हूँ कि भूल जाऊँ तुम्हें 

और ख़ुद भी न याद आऊँ तुम्हें 

जैसे तुम सिर्फ़ इक कहानी थीं 

जैसे मैं सिर्फ़ इक फ़साना था

~ जौन एलिया


भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम

क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए

~ ख़ुमार बाराबंकवी


तेरे ही ग़म में मर गए सद-शुक्र 

आख़िर इक दिन तो हम को मरना था 

~ निज़ाम रामपुरी


कुछ तो मजबूरियां रही होंगी

यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

~ बशीर बद्र


दिल में इक लहर सी उठी है अभी 

कोई ताज़ा हवा चली है अभी 

कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी 

और ये चोट भी नई है अभी 


वक़्त अच्छा भी आएगा 'नासिर' 

ग़म न कर ज़िंदगी पड़ी है अभी

~ नासिर काज़मी 


तआ'रुफ़ रोग हो जाए तो उसका भूलना बेहतर 

त'अल्लुक़ बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा 

वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन

उसे इक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा 

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों

~ साहिर लुधियानवी